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Sunday, July 29, 2018

न उगलो जहर

समाज में आज-कल कुछ ऐसी घटनाएं घटित हो रही है जो अक्सर मन में एक बैचेनी पैदा करने लगती हैं यह बेहद चिंता का विषय है मेरे मन के भाव प्रकट करती यह रचना

जातिवाद के
मुद्दे लेकर
न टकराओ
आपस में

न कुकर्म
करो इतने
शर्म मर जाए
आंखों में

मत उगलो
जहर इतना
कि जीना
मुश्किल हो जाए

इंसान मरे
या न मरे
सर्प शर्म से
मर जाए

मत पालो
नफरत इतनी
दिल भी
पत्थर हो जाए

प्यार बिचारा
सदा के लिए
दिल के दौरे
से मर जाए

अभी वक्त है
संभल जाओ
करनी को
अपनी सुधार लें

बीज डाल कर
प्यार के
नेकी के
पौधे लगाले

जो बोए बीज
बबूल के
आम कहां से
पाओगे

इंसानियत को
अपनी बचाके
प्यार की कुछ
बारिश करले
***अनुराधा चौहान***

बस्ती नहीं बसती

जब उजड़ती है कोई बस्ती
तो बस्ती नहीं बसती
इतिहास बन जाती है
दफन हो जातीं हैं
सदा के लिए
मिट जाते निशां उनके
बन जाती हैं वहां इमारतें
बिखर जाते हैं आशियां
जहां बसती थी खुशियां
समेट कर बिखरे सपनों को
चल देते हैं बेघर बेसहारा
आंखों में नमी लिए
इक नई मंजिल की ओर
एक नई आस के साथ
कभी तो होगी कोई भोर
कभी तो होगा जीवन में उजाला
कभी तो कोई बसेरा मिलेगा
जो उनका अपना होगा
फिर बसाते है नई बस्ती
जानते हैं यह सच भी
जब तक गरीबी उनमें बसती
तब तक कोई बस्ती नहीं बसती
रेत के घरोंदें सी उनकी बस्ती
आज बनी तो कल है मिटती
***अनुराधा चौहान***


Saturday, July 28, 2018

यह कैसा विकास है

सरकारें आती हैं
सरकारें जाती हैं
विकास के नाम पर
कुछ तोहफे जाती हैं
विकास तो हो रहा है
शहरों का सड़कों का
ट्रेनों का बसों का
विकास तो हो रहा है
ऊंची ऊंची इमारतों का
बड़े बड़े शापिंग मॉलों का
विकास तो हो रहा है
नई नई तकनीक का
नई नई सुविधाओं का
पर यह कैसा विकास है
गरीब अभी भी भूखा मर रहा
भुखमरी  वहीं की वहीं
पर यह कैसा विकास है
किसान का चूल्हा बुझा पड़
उसकी समस्या वहीं की वहीं
यह कैसा विकास है
नारी उत्पीड़न जारी है
निर्भया की पीड़ा वहीं की वहीं
विकास तो हो रहा है
समाज के एक हिस्से का
दूसरे हिस्से की पीड़ा वहीं की वहीं
यह कैसा विकास है
***अनुराधा चौहान***




बस एक बार लौट आ

यह तेरे आने की आस है
जो हम आज भी जिंदा हैं
तेरे उस प्यार का एहसास है
जो कभी तू हमसे करता था
जिए जा रहे हैं जिंदगी
कभी तो तुझे
हमारी याद आएगी
कभी तो तेरा प्यार जागेगा
कभी तो तू लौट कर आएगा
क्या तुझे हमारी
याद नहीं आती
क्या तुम्हें एहसास नहीं होता
उस प्यार का उस ममता का
जो तुम्हें हमसे मिला
क्या कभी भूले से भी
तुम्हें हमारा
ख्याल नहीं आता
तुम इतने कठोर तो नहीं थे
क्या कोई पीड़ा नहीं होती
कैसे भूल गए तुम मेरा आंचल
जिसके साए में पले
कैसे भूल गए
पिता के कांधे
जिन पर बैठ कर बड़े हुए
कैसे भूल गए यह आंगन
जहां तुम खेले बड़े हुए
शायद हम गलत थे
हमारे संस्कार गलत थे
इसलिए तुम
हमें छोड़ गए
निसहाय अकेले इस उम्र में
भूल गए अपने जन्मदाता को
बस एक बार लौट आ
तुझे सीने से लगा लें
बस इतनी सी चाहत है
***अनुराधा चौहान***
मेरी रचना में उन बुजुर्गों की व्यथा का वर्णन है जिनके बच्चे उन्हें बुढ़ापे में अकेले छोड़ जाते हैं

ऋतु सावन

मनभावन ऋतु सावन आई
संग अपने खुशहाली लाई
चहुं ओर बिखरी हरियाली
हरियाली की देख के शोभा
मस्त मगन सब झूम उठे
देख के उनका यह नर्तन
थिरक उठी नन्ही बूंदें भी
चली पवन पुरवाई
गाए कोयल मतवाली
सुन कोयल की तान
दामिनी तड़ तड़ तड़के
दामिनी की तड़क से
सावन भी जम कर बरसे
चली नदियां इठलाती
मोर पपीहा नाच उठे
करने वसुंधरा का श्रृंगार
इंद्रधनुष निकल के आया
देख धरा की धानी चूनर
झरनों ने सुमधुर राग सुनाया
यह सुंदर छवि देख
तरुवर झूम के गाएं
विरहणी को यह संदेश सुनाएं
पिया मिलन की ऋतु आई
सखी पड़ गए झूले
सावन ऋतु आई
***अनुराधा चौहान***

Friday, July 27, 2018

मोह माया के फेर में

क्यों माया के पीछे
इंसान तू करे है किट किट
बीत रहा है समय
सुन घड़ी की टिक-टिक
मोह माया के फेर में
जिंदगी घट रही नित नित
हरी भजन तू करले
पुण्य कुछ करले अर्जित
मुट्ठी बांध के आया जग में
मुट्ठी ले जायेगा रीति
रिश्ते नाते छोड़ लगा है
करने तू धन संचित
रिश्तों में तू थोड़ा जी ले
छोड़ कर सारी खिट खिट
समय बीत रहा तेजी से
कब आए घड़ी वह अंतिम
***अनुराधा चौहान***


तुम्हें याद है

तुम्हें याद है
या तुम मुझे भूल गए
सुबह चाय की प्याली ले
मेरा इस कुर्सी पर बैठना
तुम्हें बहुत अच्छा लगता था
तुम्हें याद है
या तुम मुझे भूल गए
मेरा हौले से बालों का खोलना
धीरे से उन्हें लहराना
तुम्हारा मुझे देख मुस्कुराना
तुम्हें याद है
या तुम मुझे भूल गए
मेरे समीप बैठ कर
तुम ढ़ेर सारी बाते करते थे
हौले हौले कुर्सी हिलाते
तुम्हें याद है
या तुम मुझे भूल गए
शायद तुम मुझे नहीं भूले
इसलिए किसी को 
छूने नहीं देते यह कुर्सी
आज भी तुमने वहीं रख छोड़ी है
तुम्हें याद है
तुम मुझे भूले नहीं
इसलिए कुर्सी पर बैठ
मेरे एहसास को महसूस करते हो
हरपल अपने पास
तुम्हें सब याद है
बस तुम्हारा अहम है
जो तुम्हें कहने नहीं देता
तुमको मेरे पास आने नहीं देता
***अनुराधा चौहान***




Thursday, July 26, 2018

कोटि-कोटि नमन

कोटि-कोटि नमन हमारा
गुरुवर श्री आपको
जीवन नैया पार लगाओ
हम पर यह उपकार करो
आप हमारे भाग्य विधाता
भरो उजाला ज्ञान का
संस्कारों का देकर खजाना
मार्ग दिखाओ सदभाव का
आप हमारे भाग्य विधाता
प्रकाश फैलाते ज्ञान का
इंसानियत का पाठ पढ़ा
हमें कराते सत्य का भान
प्रथम गुरु माँ बाप हमारे
परिचय कराते जीवन से
आप हमारे जीवन ज्योती
मार्ग दिखाते उन्नति का
आप हमारे ब्रह्मा विष्णु
आप ही देव महेश
आप ही हमारे परब्रह्म है
सदैव करते हैं हम आपको
कोटि-कोटि नमन
🙏जय गुरुदेव🙏
***अनुराधा चौहान***

मेरा वतन

माँ तेरे आगोश में सोने को जी चाहता है
कर चला हूं जां फिदा वतन पर
बस तुझसे मिलने को जी चाहता है
आज निकला हूं जिस सफर पर
लौट कर फिर न आऊंगा मैं
जब भी देश पर दुश्मन चढ़ आया है
देश के वीर सपूतों ने मार भगाया है
दुश्मनों का किस्सा तमाम कर आज
 हमने तिरंगा फिर लहराया है
में और मेरे साथियों की यह कुर्बानी
रहेगी याद सबको अपनी जुबानी
अब और कोई आस नहीं बाकी
बस तुझसे मिलने की आस थी बाकी
यह मेरा वतन इसे मेरी जरूरत थी
इसकी रक्षा बेहद जरूरी थी
आज हर फर्ज अदा करता हूं
माँ में तुझे सलाम करता हूं
माँ तूने मुझे जन्म जरूर दिया
फर्ज इस माँ के लिए था सबसे बड़ा
अपनी दोनों माँ को सलाम करता हूं
माँ में तुझसे बहुत प्यार करता हूं
फख्र करना मेरी शहादत पर
मेरे बदन में अपने लहू की रबानी पर
व्यर्थ न होने दी मैंने तेरी कुर्बानी
अब करुं अंतिम सफर की तैयारी
खत्म होता है अब यह यहीं किस्सा
जन्मू जब भी बनूं तेरा हिस्सा
जन्म चाहें जितने भी लूं
हर बार खुद को देश पर वार दूं
वतन पर जां निसार करता हूं
अपने वतन को अंतिम प्रणाम करता हूं
कारगिल विजय दिवस पर सभी देश के वीर शहीदों को शत् शत् नमन 🙏 जय हिन्द 🙏
***अनुराधा चौहान***


Wednesday, July 25, 2018

तू कैसी अबला नारी है

तू कैसी अबला नारी है
खुद को पहचान नहीं पाती
सूर्य किरण सा तेज़ तुझमें
हैं शीतलता चाँदनी की
माँ बहन पत्नी और बेटी
कितने रूपों को तू जीती
जिस घर में है तू जाती
उसी परिवेश में ढल जाती
खुद की कोई पहचान नहीं
दूजे की पहचान पर जीती
तब भी उफ़ न करती
अपने कर्त्तव्य निभाती
कभी दहेज तो कभी तेजाब
सदा निर्दोष जला करती
शारीरिक वेदना सहती
टूटती गिरती फ़िर खड़ी होती
है सहनशीलता इतनी तुझमें
फिर क्यों खुद को कमजोर है कहती
नारी तू अबला नहीं
बस खुद को पहचान नहीं पाती
तू कोमल सुकुमारी है
तू ही काली कल्याणी है
है रिश्तों की मर्यादा तुझमें
तू सम्मान की अधिकारी है
तू कैसी अबला नारी है
खुद को पहचान नहीं पाती
***अनुराधा चौहान***

Tuesday, July 24, 2018

झूठ जिए सच है मरता

यह कैसा कलयुग का खेला
झूठ जिए सच है मरता
पहन के यह मखमली जामा
खुल कर फिरे तान कर सीना
झूठ की इतनी महिमा न्यारी
महलों में इसकी हिस्सेदारी
जिसने थामा झूठ का दामन
खुशियों भरा उसका घर आंगन
पर सच भी जिद पर अड़ा हुआ है
झूठ के आगे खड़ा हुआ है
सच के दामन में जो लिपटे पड़े हैं
मुश्किल में वे बहुत पड़े हैं
गरीबी उनके गले पड़ी है
खाने की मुश्किल आन पड़ी है
फिर भी उसूलों पर अड़े हुए हैं
झूठ के सामने डटे खड़े हैं
यह लड़ाई तब तक चलेगी
जब तक धरा पर जिंदगी रहेगी
कब तक सच मरता रहेगा
झूठ के आगे झुकता रहेगा
कभी तो होगी झूठ की हार
सच की होगी जय जयकार
***अनुराधा चौहान***

भोर सुहानी

रवि उदय हुआ
नई भोर हुई
रवि किरणें जग में
चहुं ओर बिखरी
भर अंबर में लाली
लाई भोर सुहानी
चिड़िया चहकी
डाली डाली
देख अंबर की लाली
कली कली इठलाई
सुन भंवरों की गुंजन
फूल बन मुस्काई
छोड़ शबनमी आवरण
रवि किरणों की छुअन से
शोभित वसुंधरा शरमाई
गालों को छुकर
पवन चली
बोली उठ जाओ
नई भोर हुई
***अनुराधा चौहान***


क्यों कोसे हम किस्मत को

क्यों कोसे हम
किस्मत को अपनी
दीप आस का
जलाएं हम
क्यों कोसे हम
वजूद को अपने
खुद की नई दुनियाँ
बनाएं हम
बैठे-बैठे
कुछ नहीं मिलता
कर्म सभी को करना है
अगर बदलनी है
किस्मत अपनी
तो तूफानों से
लड़ना है
नाम प्रकाशित हो जग में
आओ कुछ ऐसा कर जाएं
किस्मत पर अपनी
सब नाज करें
ऐसी पहचान बना जाएं
***अनुराधा चौहान***

गंगा तू बहती जा

गंगा तू बहती जा
कल कल गीत सुनाती जा
निच्छल निर्मल तेरी धारा
सबके जीने का तु सहारा
भागीरथ की तू भागीरथी
शिव की जटाओं से तू है बहती
जहां जहां से निकल कर आती
जीवन में रंग भरती जाती
तेरे मन में कोई बैर नहीं
तेरा अपना कोई शहर नहीं
पर्वतों से निकल कर आती
सागर में जाकर मिल जाती
गंगासागर तू कहलाती
सागर से तेरा मिलन अमर है
सबसे पावन यह तीरथ है
गंगा तू बहती जा
कल कल गीत सुनाती जा
***अनुराधा चौहान***


Monday, July 23, 2018

मकां तो सब बनाते हैं

मकां तो सब बनाते हैं
खूब शान से सजाते हैं
रखते हैं हर साधन
धन भी खूब लगाते है
रंगते है महंगे कलर से
प्यार का रंग नहीं भरते
मकां तो सब बनाते हैं
पर घर नहीं बनाते हैं
घर बनता है प्यार से
घर बनता है एहसास से
घर की नींव होती है माँ
जो बांधती है रिश्तों को
भावनाओं की दिवारों से
रंगती प्यार के रंग से
संस्कारों की महक भरती
पिता घर की छत जैसे
बचाते गम की धूप से
मुश्किल की जो बारिश हो
छा जाते है छतरी से
माँ बाप की छाया में
कई रिश्ते पनपते हैं
वो भरते रंग हैं घर में
मकां को घर बनाते हैं
अगर रिश्ते न हो घर में
वह घर नहीं मकां होता
मकां तो सब बनाते हैं
पर घर नहीं बनाते हैं
***अनुराधा चौहान***



Saturday, July 21, 2018

नन्ही सी आशा

चाह नहीं खिलौनों की
न किसी बँधन में बँधना चाहूँ
मैं पँछी उन्मुक्त गगन की
बन मस्त मगन उड़ना चाहूँ
रंग बिरंगे फूलों पर
बन तितली उड़ना चाहूँ
संग पवन पुरवाई के
मस्त मगन बहना चाहूँ
या बारिश की बन नन्ही बूँद
नदियां के संग बह जाऊँ
मैं ओढ़ आसमां की चादर
धरती की गोद में सो जाऊँ
पर इस‌ बेदर्दी दुनिया के
पास में न रहना चाहूँ
जीना चाहूँ पल आजादी के
छूना चाहूँ ऊचाईयों को
हरदम मुझको डर लगता है
इस दुनिया के शैतानों से
बस इतनी सी चाह है मेरी
देदो कोई पँख मुझे भी
इतना ऊँचा उड़ जाऊँ
हाथ किसी के में न आऊँ
***अनुराधा चौहान***



रहो कुंवारे तुम भईया

पापा मेरा ब्याह करादे
गाड़ी चाहिए चार पहिया
लड़की हो बड़े घर की
साथ में लाए बहुत पैसा
साथ में टीवी एसी होवे
और लाए बहुत गहना
इकलोती माँ बाप की होवे
न बहन हो न भईया
मैं घर मे आराम करूं
वो कमाएं लाखों रुपया
बोले पापा सुनो बेटा जी
फिर न होवे ब्याह तुम्हारा
बदल गया है आज ज़माना
अब लड़की ही पूरा खज़ाना
जो कमाएं लाख रुपया
वो क्यों लाए बहुत रुपया
न बेचो ईमान तुम अपना
खुद कमाओ लाख रुपया
न दहेज दो और न लो
बंद करो ये कुरीतियां
न मैंने दहेज़ है दिया
न में लेऊं बहुत रुपया
बिकने की सोच रखोगे
तो रहो कुंवारे तुम भईया
***अनुराधा चौहान***

Friday, July 20, 2018

हिण्डोला यादों का

सखी डाला रे हिण्डोला यादों का
पहले झूली मैया की यादें
बड़े प्यार से हिंडोला झुलाए
आँखों से ममता रस बरसे
आँखें मेरी भर भर आएं
सखी ..........................
दुजी झूले बहनों की यादें
बड़े प्यार से हिंडोला झुलाए
गीत मगन हो सावन के गाएं
आँखें मेरी भर भर आएं
सखी............................
फिर झूली बचपन की यादें
साथ ले आईं भैय्या की यादें
बड़े प्यार से हिंडोला झुलाए
अपनी बहन से नेह लगाए
आंँखें मेरी भर भर आएं
सखी...................…........
अब के सावन पिया संग झूलूँ
मायके को कैसे भूलूँ
बाबुल का हिंडोला मन में बसाए
हौले हौले में उसे झुलाऊं
आँखें मेरी भर भर आएं
सखी डाला रे हिण्डोला यादों का
***अनुराधा चौहान***


Thursday, July 19, 2018

क्यों बार बार


क्यों बार बार
यूं ही याद आते हो
क्यों बार बार
फिर वही स्वप्न दिखाते हो
क्यों बार बार
प्यार की लौ जलाते हो
क्यों बार बार
मिलने चले आते हो
क्यों बार बार
छोड़ कर चले जाते हो
पर बस अब नहीं
इस बार तुम नहीं
मैं जा रही हूं
बुझा कर लौ प्यार की
तोड़ हर कसम
तोड़ कर हर वादा
बार बार नहीं
सिर्फ एक बार में
तुम्हारे झूठे वादों से
कहीं दूर बहुत दूर
***अनुराधा चौहान***

मंहगाई

मंहगाई
एक समस्या भारी
कभी प्याज तो कभी दाल
कभी तेल टमाटर की बारी
दिन पर दिन
कीमत बढ़ती जाए
गरीबों को निगलती जाए
बुझ रहे घरों के चूल्हे
दाल टमाटर होते हीरे
प्याज रोटी खाकर जो
अपना गुजारा करते थे
प्याज की तो छोड़ो
रोटी के लाले पड़ते हैं
नमी आंखों में लेकर
जब बच्चे भूखे सोते हैं
तब बेबस माँ बाप
अपनी फूटी
किस्मत को रोते हैं
जी तोड़ मेहनत कर
जितना कमा कर लाते हैं
मंहगाई के कारण
एक वक्त ही खाना पाते है
समाधान के नाम पर
सिर्फ झूठे वादे होते है
मंहगाई कम करने
प्रयास कम होते है
किसान अपनी
दयनीय स्थिति से
मरने को मजबूर है
पर नेता जी तो
अपनी कुर्सी के
मद में चूर हैं
पेट्रोल डीजल के
दामों को लेकर
हो हल्ला होता है
जरा गरीबों के घर
झांक कर देखो
क्या उनका चूल्हा
जल रहा है
***अनुराधा चौहान***

जल बिन जीवन मुश्किल है

महत्व समझो जल का
जो जीवन का आधार है
घट रहा दिन प्रतिदिन
यह हमारी
गलती का परिणाम है
प्रकृति का निरंतर दोहन
कर रहा भूमि बंजर
दूषित हो रहा
नदियों का जल
स्वच्छ जल होता ज़हर
गिरता निरंतर जलस्तर
क्या पिएगा आने वाला कल
टूटे नल बहता पानी
होती पानी की बरबादी
व्यर्थ न इसे बहने दो
हर बूँद की कीमत समझो
जल ही जीवन है
यह जीवन अमृत है
जल बिन जीना मुश्किल है
जल संग्रहण का प्रयास हो
वर्षाजल बर्बाद ना हो
अब पहल हमें ही करना है
हो हमें जितनी जरूरत
पानी हो उतना ही संचित
व्यर्थ जमा कर पानी
नाली में ना बहने दो
बूँद-बूँद की कीमत को
वो ही अच्छे से समझते हैं
जो इसके लिए तरसते हैं
एक एक घड़े पानी के लिए
वो मीलों तक पैदल चलते हैं
हम फिजूल पानी बहाकर
सिर्फ गाड़ी को चमकाते है
घर बैठे पानी मिलता है
पानी का मोल तो समझेँ
जल अनमोल धरोहर जीवन की
प्रकृति के खिलते यौवन की
कुछ तो फिकर करो सब
अपने आने वाले कल की
अगर यह सिलसिला नहीं रूका
तो धरती से फिर जीवन रूठा
***अनुराधा चौहान***

कैसे बीते सावन


बागों में झूले पड़ गए
ऋतु मनभावन सावन आई
प्रिय को मेरे संदेश तु दे आ
सुनरी ओ पवन पुरवइया
भूल गए हों तो याद दिलाना
व्यथा मेरी तुम उनसे कहना
कहना कोयल कूक रही है
श्रावण गीत की धूम मची है
डाली डाली पर झूले पड़े हैं
मस्ती में सब झूल रहे हैं
मैं विरहन तेरा रस्ता निहारे
आमुआ की डाली पर झूला डाले
तुम बिन विकल हुआ जाए मन
कैसे बीते अब यह सावन
***अनुराधा चौहान***

Wednesday, July 18, 2018

दर्द भरी दास्तां

वह एक अबला नारी बेचारी
सुबह से उठ कर करती काम
रखती सभी के सुखों का ध्यान
बहुत सुखों में रहती थी
वो माता पिता के आंगन में
शादी होते किस्मत पलटी
जिंदगी उलझी कांटों में
न कोई कमी थी घर में
न किसी का था व्यवहार बुरा
पर जिस संग डोर बंधी जीवन की
वह इंसान था खूंखार बड़ा
बात बात पर मारा पीटी
बात बात पर चिल्लाना
फिर भी सब चुप सहती
पर मुख से कुछ नहीं कहती
परिवार और बच्चों के प्रेम
प्रीत से दिन उसके गुजर रहे
सब अपने स्नेह बंधन से
जख्म थे उसके भर रहे
बीत रहे दिन और साल
बच्चे भी बड़े हो गए
लगा सुकुन का समय आया
पर प्रभू तो लीला रच रहे
हुई बड़ी गंभीर बीमारी
फिर कष्टों में आ घिरी
पर इस हालत में भी
पति से प्रीत न मिली
समझ गई प्रभू का फैसला
शायद उनको यही मंजूर है
उसकी किस्मत से सच में
सुख कोसों दूर है
***अनुराधा चौहान***

इस रचना में एक आंखों देखी घटना को व्यक्त करने की छोटी सी कोशिश की है मैंने कि ऐसे भी लोग होते हैं इस दुनिया में ✍

मन इक पंछी आवारा

मन इक
पंछी आवारा
मस्त मगन
उड़ता फिरता
कभी यहां
कभी वहां
सपने अलबेले
बुनता
कभी महलों में
कभी रिश्तों में
सुकुन के
पल ढूंढ़ता
कभी बेपरवाह
हो फिरता
मन इक
पंछी आवारा
मस्त मगन
उड़ता फिरता
कभी आसमां में
तारे गिनता
कभी तन्हाइयों में
गोते खाता
कभी आसमां की
ऊंचाईयों में
पंख फैला कर
 उड़ता फिरता
कभी उदास
और हताश
अंधेरे में जा छुपता
कभी प्रिय
मिलन की चाह में
खुशी से
झूमने लगता
मन इक
पंछी आवारा
मस्त मगन
उड़ता फिरता
***अनुराधा चौहान***

जिंदगी के रास्ते


जिंदगी एक सफर है
टेढ़े-मेढ़े है जिंदगी के रास्ते
कुछ कांटों भरे कुछ पथरीले
कुछ मंजिल पर पहुँचाते है
कुछ बीच में राह भुलाते है
फिर भी भागती जाती है जिंदगी
अपनी मंजिल की ओर
इन पथरीले रास्तों पर
चलते रहने का संदेश दे
इन रास्तों पर रुक गए
तो ओझल हो जाएगी मंजिल
मुश्किल हो जाएगा सफर
चलते चलते सफर भी कटेगा
चलते चलते रास्ते भी मिलेंगे
मंजिल भी मिलेगी
बस मन में दृढ़संकल्प का
दीप जलाकर रखना होगा
***अनुराधा चौहान***

Tuesday, July 17, 2018

राधा संग झूलें श्री कृष्ण मुरारी

झूले पड़ गए कदम की डाली
घिर आई काली घटा मतवाली
राधा संग झूलें झूलना
 श्री कृष्ण मुरारी
कोयल कूहके डाली-डाली
नाच रहीं गोप कुमारी
घन गरजत और नाचे मयूरा
नाच रहा ब्रज पूरा
राधा संग झूलें झूलना
 श्री कृष्ण मुरारी
नन्ही-नन्ही रिमझिम बूँदें
राधाश्याम के मुख को चूमें
ब्रजमंडल में छाई हरियाली
राधा संग झूलें झूलना 
श्री कृष्ण मुरारी
मस्त मगन देख नर नारी
मेघ मल्हार गाएं झूम झूम कर
श्री गोविंदम् गिरधारी
राधा संग झूलें झूलना 
श्री कृष्ण मुरारी
***अनुराधा चौहान***

यादें माँ के घर की


मन को बहुत तड़पाता है
माँ तेरा घर बहुत याद आता है
जब भी तकलीफ में होती हूँ
बस उन लम्हों में
 तुझ को ही जीती हूँ
याद आता है
ममता का आंचल
याद आता है
तेरा प्यार से सहलाना
माँ तुझसे ही सीखा है मेंने
खुद को भूलकर
सबको खुशी देना
सबके उठने से पहले उठना
सबके सोने के बाद सोना
माँ याद आता है 
वो बीता हुआ बचपन
पापा से लाड़ लगाना
और बाबा के किस्से
दादी की कहानियां
वो भाई से झगड़ना
बहनों संग हंसी ठिठोली
वो कागज की नाव
वो कपड़े की गुड़िया
वो आंगन का कोना
जहाँ खेलती थी हम सखियां
मन को बहुत तड़पाता है
माँ तेरा घर बहुत याद आता है
***अनुराधा चौहान***

Monday, July 16, 2018

मैं नन्ही ओस की बूंद


मैं नन्ही ओस की बूंद
नन्हा सा अस्तित्व मेरा
हे चांदी सी आभा मुझमें
चांद के जैसी शीतलता
प्रकृति से में जन्मती
प्रकृति की गोद में खेलती
प्रकृति की गोद में समा जाती
फूल पंखुड़ियों के दामन में
कुछ लम्हे प्यार के जीती
प्रेम का संदेश में देती
प्रकृति का श्रृंगार में करती
देती मोतियों सी आभा बिखेर
नहीं सूर्य का ताप सहन
धूप देख कुम्हला जाती
रात्रि मिलन का वादा कर
प्रकृति की गोद में सो जाती
मैं नन्ही ओस की बूंद
कुछ लम्हों का अस्तित्व मेरा
***अनुराधा चौहान***

Saturday, July 14, 2018

श्री कृष्ण मुरारी


कमल नयन पीताम्बर धारी
नीलवर्ण श्री कृष्ण मुरारी
आज प्रेमरस बरसादो
बन जाऊं मैं बांसुरिया
अधरों से मोहे लगालो
श्री गोवर्धन गिरधारी
बंशी मधुर सुना दो
बन जाऊं मैं पैजनिया
पैरों में लिपटा लो
श्री नटवर नागरिया
बजा दे तू मुरलिया
बन जाऊं बैजंतीमाला
गले मोहे लगा लो
आ जाओ बनवारी
तेरी राधा तुझे पुकारे
बन जाऊं पट पीताम्बर
कमर मोहे लिपटा लो
बन जाऊं मैं बांसुरिया
अधरों से मोहे लगा लो
जय राधा-श्याम 🙏
***अनुराधा चौहान***



भविष्य बिगड़ रहा है


आज के युग के बच्चे
सभ्यता संस्कार भूल रहे
बड़े बूढों का चरण स्पर्श
हाय हैलो में बदल रहे
सदा चहकते रहते थे
मोबाइल लेपटॉप में जकड़ गए
शरबत शिकंजी पीछे छोड़
कोक पेप्सी का दौर चले
दाल रोटी को छोड़ कर घर में
पिज्जा बर्गर में जुटे पड़े
फटी जीन्स पहन कर घूमें
उसको फैशन बताते है
डिस्को पब की दुनिया
उसको जन्नत बताते है
छोड़ गलियों के खेल
मोबाइल गेम खेल रहे
आधुनिकता का लिबास ओढ़
वास्तविकता को भूल रहे
मंदिरों में हाथ जोड़ना
अब रीत पुरानी लगती है
दिखावे की इस दुनिया में
अपनों की भीड़ बेगानी लगती है
वर्तमान की यह हालत है
फिर भविष्य तो बिगड़ रहा
आज की क्या बात करें
आने वाला कल हाथ से निकल रहा
***अनुराधा चौहान***
आज कल कुछ घरों में इस तरह के बदलाव देखने को मिल रहें हैं जो बेहद चिंता का विषय बन गया है 

Friday, July 13, 2018

सच्चा बचपन


मिट्टी से बना घर था
मिट्टी के खिलौने थे
झूठ मूठ की रसोई थी
पर पकवान अलबेले थे
तब सब कुछ अच्छा लगता था
वो बचपन सच्चा लगता था
जब मन चाहता था
डॉक्टर बन जाते
सबको दवा खिलाते थे
तो कभी मास्टर बन
सबको पाठ पढ़ाते थे
तब सब कुछ अच्छा लगता था
वो बचपन सच्चा लगता था
कभी क़िले फतह कर आते
तो कभी चोर पुलिस बन
गलियों में शोर मचाते
कभी पेड़ों पर चढ़ जाते
तब सब कुछ अच्छा लगता था
वो बचपन सच्चा लगता था
पल में लड़ते और झगड़ते
पल में एक हो जाते
चुपके से जाकर हम
पड़ोसी की कुंडी बजा आते
तब सब कुछ अच्छा लगता था
वो बचपन सच्चा लगता था
***अनुराधा चौहान***

कर्मयोगी बन



मत हो हताश
न छोड़ आस
उठ चल कर्म कर
दीप जला अंधेरा हटा
हवा के रुख को मोड़ ले
कर्म कर कर्मयोगी बन
दृढ़ संकल्प का भान कर
लक्ष्य का ज्ञान कर
धर्म कर्म से पूर्ण हो
मानवता से प्यार कर
कोई अंधेरा नहीं घना
ज्ञान का प्रकाश कर
दुखियों के दर्द दूर कर
जहां में ऊंचा नाम कर
तुम भाग्य विधाता खुद अपने
जीवन की तस्वीर बदल
कर्म कर कर्मयोगी बन
***अनुराधा चौहान***


Thursday, July 12, 2018

हरी नाम सुमिर ले

(चित्र गूगल से साभार)


यह तन हाड़ मांस की काठी
इक दिन तो जल जाना है
यूंही तेरा मेरा करे तू मनवा
सब यहीं धरा रह जाना है
धन दौलत के पीछे लगकर
व्यर्थ समय गंवाया करता है
हरी नाम सुमिर ले मनवा
साथ तेरे यही जाना है
भाई-बहन और बंधू सखा
सब रिश्ते इस संसार के
प्राण पखेरू जिस दिन निकले
सब यहीं धरे रह जाएंगे
जितनी माया यहां बटोरी
यहीं धरी रह जानी है
हरी के रंग में रंग जा मनवा
भवसागर तर जाएगा
***अनुराधा चौहान***

नया सबेरा लाना होगा

(चित्र गूगल से साभार)

भारत प्यारा देश हमारा
इसको सोने सा सजाना होगा
हिल मिल कर हम साथ चलें
हमें नया सबेरा लाना होगा
मानव कल्याण का बीड़ा
अब हमको उठाना होगा
बेईमानी भ्रष्टाचार हटाकर
ज्ञान का प्रकाश जलाना होगा
हिल मिल कर हम साथ चलें
हमें नया सबेरा लाना होगा
विश्वगुरु के पद पर
फिर भारत को पहुंचाना होगा
मरती सभ्यता संस्कारों को
फिर अस्तित्व में लाना होगा
हिल मिल कर हम साथ चलें
हमें नया सबेरा लाना होगा
उच्च धर्म हो मानवता का
सबको पाठ पढाना होगा
भटक गए हैं जो कर्त्तव्य पथ से
उनको राह दिखाना होगा
हिल मिल कर हम साथ चलें
हमें नया सबेरा लाना होगा
मन में दृढ़ता कर्म समर्पित
हृदय अगर उत्साही हो
दुखियों का संताप हरें हम
यह बीड़ा उठाना होगा
हिल मिल कर हम साथ चलें
हमें नया सबेरा लाना होगा
पंचशील के संदेशों को
जीवन में अपनाना होगा
ज़ख्मी पड़ी इस चिड़िया (भारत) को
फिर सोने की चिड़िया बनाना होगा
हिल मिल कर हम साथ चलें
हमें नया सबेरा लाना होगा
हो आजाद बहन बेटियों
मुक्त हो अपने उत्पीड़न से
नारी का सम्मान करें सब
हमें ऐसा जहां बनाना है
मिल कर कदम उठाना है
हिल मिल कर हम साथ चले
 हमें नया सबेरा लाना है
***अनुराधा चौहान***

बेवफा हम नहीं


(चित्र गूगल से साभार)

बेवफा हम नहीं मजबूर हैं
जिंदगी से तेरी बहुत दूर हैं

एक झोंका हवा का ऐसा चला
शाख से फूल हुआ पल में जुदा

फैसले किस्मत के हमें मंजूर हैं
बेवफा हम नहीं मजबूर हैं

कभी अरमान‌ ए दिल मचलता है
जाम ए गम पीकर यह सिसकता है

कोरे कागज सी यह जिंदगी मेरी
दूर होकर तुमसे बेनूर है

याद गुजरे दिनों की यह जिंदगी
याद ही तेरी अब मेरी जिंदगी

होके बदनाम ही मशहूर हैं
बेवफा हम नहीं मजबूर हैं

कभी मजबूरी हमारी समझी होती
तो जिंदगी आज जिंदगी होती

तेरी यादों के मंजर दिल में दफन हैं
बेवफा हम नहीं मजबूर हैं
***अनुराधा चौहान***

Wednesday, July 11, 2018

कश्मीर की व्यथा

(चित्र गूगल से साभार)

यह भारत का मोर मुकुट
कश्मीर हमारी जान है
धरती का कहते स्वर्ग इसे
यह इसकी पहचान है
इस स्वर्ग सी सुंदर घाटी पर
दुश्मनों की नजर टिकी
गोली बम धमाकों से
गूंजे इसकी गली गली
हिम शिखरों का सोंदर्य
द्रवित हो पिघल उठा
गर्व भरा मस्तक चिनारों का
दु:खी हो झुका पड़ा
केसर की सुंदर क्यारी
जो सदा महकती रहती थी
आज आतंकी खौफ के चलते
कुछ उजड़ी उजड़ी रहती है
सुंदर शिकारों से सजी
डलझील की सुंदर शान थी
उन शिकारों की रौनक
कुछ सूनी-सूनी दिखती है
इस सुरम्य वादियों को
जानें किसकी नजर लगी
बच्चा बच्चा यहां पर घूमें
पत्थर लेकर गली गली
कश्मीर के नोनिहालों सुनो
क्या तुमको इंसान का दर्द नहीं लगता
या तुम्हारा रक्त लाल नहीं
स्वेत हुआ करता
गोली बम धमाकों से
जब घाटी का कलेजा फटता है
रोज किसी न किसी के घर का
चिराग यहां पर बुझता है
आतंकी जहर के चलते
तुमने यह कैसा काम किया
कुछ कौम विशेष को ही
उनके घर से बाहर किया
भारत का यह मोर मुकुट
कश्मीर हमारी जान है
हिल मिल कर रहे सब‌ सदा
यही वतन की शान है
***अनुराधा चौहान***

क्षत्राणियों की वीरगाथा


यह भारत की भाग्य विधाता
वीर क्षत्राणी रानियां थीं
गुणी साहसी धर्मनिष्ठ योद्धा
रण में काली कल्याणी बन
दुश्मन के छक्के छुड़ाती थी
था ममता से परिपूर्ण हृदय
सीने में स्वाभिमान की ज्वाला थी
पति विमुख न हो कर्त्तव्य से
शीश काट उसे भेंट किया
वीर क्षत्राणी रानी हांडी ने
गौरवशाली इतिहास रचा
सीता सी थी कोमलता इनमें
आंखों में पदमिनी सी ज्वाला
स्वाभिमान की रक्षा करने
मिलकर जौहर कर डाला
धधक-धधक कर जलता था तन
मुख पर चीख नहीं जयकारे थे
इनकी वीरता के आगे
दुश्मन के हौंसले हारे थे
आंखों से शोले बरसाती
तलवार चलाती बिजली सी
झांसी की वह रानी थी
खूब लड़ी मर्दानी बन
दुश्मन को ललकारती थी
दोनो हाथ तलवार चला उसने
दुश्मनों के सिर को काटा था
इतिहास गवाह है इनकी
गौरवशाली गाथा का
***अनुराधा चौहान***

Tuesday, July 10, 2018

इतनी सी चाहत


(चित्र गूगल से साभार)

छू लूं आकाश
बस इतनी सी चाहत है
उलझ गई जिंदगी
कई सारे रिश्तों में
कुछ पल खुद के लिए जिऊं
बस इतनी सी चाहत है
उम्र पार कर गई
जिंदगी के पड़ाव कई
कुछ अधूरे ख्वाब पूरा करूं
बस इतनी सी चाहत है
कर लूं कुछ खास
जब तक जिंदगी की शाम ढले
हो मेरी भी पहचान
बस इतनी सी चाहत है
***अनुराधा चौहान***

छू लूं आकाश
बस इतनी सी चाहत है
उलझ गई जिंदगी
कई सारे रिश्तों में
कुछ पल खुद के लिए जिऊं
बस इतनी सी चाहत है
उम्र पार कर गई
जिंदगी के पड़ाव कई
कुछ अधूरे ख्वाब पूरा करूं
बस इतनी सी चाहत है
कर लूं कुछ खास
जब तक जिंदगी की शाम ढले
हो मेरी भी पहचान
बस इतनी सी चाहत है
***अनुराधा चौहान*

Sunday, July 8, 2018

कैसे गाएं मेघ मल्हार

(चित्र गूगल से संगृहीत)
सखी कैसे गाएं मेघ मल्हार
रिमझिम बरखा की बूंदों से
भीग रहा जग सारा
धानी रंग में रंगी धरा का
सौंदर्य है निराला
कहीं खुशियों की बौछार है
तो विपत पड़ी कहीं भारी है
कहीं बरसती निर्मल मन से
कहीं प्रचंडता जारी है
चमक चमक सौदामिनी गरजे
जाने कितने रिश्ते निगले
जीना हो रहा दुश्वार
सखी कैसे गाएं मेघ मल्हार
प्रचंड वेग से नदियां उफने
पहाड़ गिरे कहीं धरती धसके
जल प्लावन का भीषण नजारा
दाने दाने को जन तरसे
आंखों से बहते अश्रू
करते व्यथा बखान
सखी कैसे गाएं मेघ मल्हार
घर आंगन जलमग्न हो गया
खो गई बच्चों की किलकारी
उजड़ी बगिया की फुलवारी
मच गया हाहाकार
सखी कैसे गाएं मेघ मल्हार
हे बरखा तुम निर्मल बरसो
सबके जीवन में रस भर दो
आए खुशियों की बहार
सब मिल गाएं मेघ मल्हार
***अनुराधा चौहान***

Saturday, July 7, 2018

विचलित मन

(चित्र गूगल से साभार)
आज विचलित हो उठा मन
देख कर कुछ ऐसा मंजर
यह कैसी लहर चली है
बुढ़ापे में अकेले छोड़ देते हैं
यह कैसी कलयुगी संतानें हैं
निर्दयी निष्ठुर भावना से परे
नहीं कोई दया
नहीं कोई करूणा
जिन्हें किसी का डर नहीं
असहनीय कष्ट देते
अपने जनक को
भूल गए उनके त्याग को
आज विचलित हो उठा मन
बढ़ती उम्र की लाचारी
देख संतान की कठोरता
हो जाते मजबूर
भूल गए ममता उनकी
भूल गए वो कष्ट
जो उन्हें सुखी करने के लिए
मां बाप ने झेले थे
बेदखल कर देते घर से
तोड़ देते हैं स्वप्न
जो उन्होंने संजोए थे
मन्नतों से पाया था जिसे
खरोंच जरा भी आती थी
तो फूट फूट कर रोते थे
आज उन्हीं बच्चों के दिए दर्द से
फिर फूट फूट कर रोते हैं
उफ ये कैसी निर्दयी संतानें हैं
देख के उनका यह रूप
आज विचलित हो उठा मन
*** अनुराधा चौहान***



घटा घनघोर

(चित्र गूगल से साभार)
घिर आई काली घटा घनघोर
नाच रहे दादुर पपीहा मोर
तपन घटी तपते जीवन की
हो गई धरती मगन मदहोश
शीतल मन हुआ
शीतल तन हुआ
फैली शीतलता चहुं ओर
अंगीकृत हुई जब धरा
बरखा की रिमझिम बूंदों से
सृजन हरियाली का अब देखो
होने लगा चहुं ओर
बिखर गई मोहक छटा
निखर गया धरती का स्वरूप
रिमझिम बूंदों की थाप पर
हर पत्ती हर डाली थिरके
मन होने लगा भाव विभोर
चमक चमक दामिनी मुस्काए
देख धरा उसे बांहे फैलाए
लेने को आगोश
घिर आई काली घटा घनघोर
***अनुराधा चौहान***

Friday, July 6, 2018

सुहानी शाम

(चित्र गूगल से साभार)

आज फिर तेरी याद
मेरे दिल को
सताने लगी
दिल में सोए  थे जो
वो अधूरे स्वप्न
जगाने लगी
करती हूं तेरा
इंतजार में वहीं
मिला करते थे
हम जहां कभी
यादों के समंदर में
में डूबती जाती हूं
जो लम्हे साथ बिताए
उन लम्हों को
भूल नहीं पाती हूं
सोचती हूं काश
फिर से लौट आती
वह सुहानी शाम
जब हम तुम मिले थे
आगोश में तेरी
कुछ लम्हें जिए थे
कुछ गीत गुनगुनाए
कुछ नगमे सुने थे
चुनकर जिंदगी से
हसीन लम्हों को
कुछ सपने बुने थे
फिर आने का
वादा कर
तुम ऐसे गए
फिर लौट कर
 नहीं आए
अकसर यहां आकर
सोचती हूं मैं कभी
खुद को वहीं पाती हूं
तुम मुझे भूल गए
यह भूल नहीं पाती हूं
सोचती हूं काश
फिर से लौट आए
वह सुहानी शाम
***अनुराधा चौहान***


Wednesday, July 4, 2018

हम हो जाते हैं

(चित्र गूगल से संगृहीत)
सारे झगड़े हम भुलाते हैं
चलो मैं मैं नहीं हम हो जाते हैं
भूल कर झगड़े ये जातीवादी
यह चालें है कुछ सियासत वाली
इन सब से परे हो जाते हैं
चलो मैं मैं नहीं हम हो जाते हैं
यह वादे दिखावे की दुनिया
चलती वोटों की राजनीति दुनिया
पल में हमें तोड़ जाते हैं
चलो मैं मैं नहीं हम हो जाते हैं
हक की लड़ाई जहां हम लड़ते
कुछ सियासी वहां दंगे करते
उनकी चालों में हम फस जाते हैं
चलो मैं मैं नहीं हम हो जाते हैं
होती राजनीति मासूम चीखों पर 
मरहम कोई नहीं उनके जख्मों पर
अपने वोटों को सिर्फ भुनाते है
चलो मैं मैं नहीं हम हो जाते हैं
जरूरतें जहां हमें हैं होती
हुकूमतें वहां इनकी नहीं होती
व्यर्थ हम अपना समय गंवाते हैं
चलो मैं मैं नहीं हम हो जाते हैैं
सुख का सूरज हमें उगाना है
मिलकर इक दूजे के काम आना है
नया सबेरा अब हम लेकर आते हैं
चलो मैं मैं नहीं हम हो जाते हैं
***अनुराधा चौहान***

Monday, July 2, 2018

हरियाली चूनर

(चित्र गूगल से संगृहीत)
उमड़ घुमड़ काले बदरा छाए
देख के उनका रूप सलोना
धरती ने भी ली अंगड़ाई
धरती ने ली अंगड़ाई
मन मयूर डोल उठा है
करने धरा का आलिंगन
अब बदरा झूम उठा है
देख के इनकी छटा निराली
दामिनी चमक कर आई
और धरा को छूने से
खुद को रोक न पाई
पा उसका स्पर्श
धरती सकुची शरमाई
हरियाली की चूनर ओढ़े
 फिर मंद मंद मुस्काई
***अनुराधा चौहान***


नारी का जीवन

(चित्र गूगल से साभार)
नारी का जीवन
जैसे नदिया की धारा
उनसे अपेक्षा का
नहीं कोई किनारा
बेटों को सीने से लगाते
उनको किनारा कर देते
बेटी पराया धन होती
यह सीख सदा उनको देते
प्यार सदा उनको मिलता
वह एहसास नहीं मिलता
उस घर को अपना कह सके
वह अधिकार नहीं मिलता
ब्याह कर के वह जब भी
अपने ससुराल जाती हैं
गृहलक्ष्मी बन कर भी
वह सम्मान न पाती हैं
सुबह से उठ कर काम करे
रखे सभी का खूब ख्याल
फिर भी बात बात में मिलता
उनको पराए होने का एहसास
नारी के जीवन की
यह कड़वी सच्चाई है
कितना भी समर्पण कर लें
फिर भी कहलाती पराई हैं
नारी बिना घर स्वर्ग नहीं
यह बात सभी स्वीकार करें
उनसे अपेक्षाएं रखते हो
उन्हें उनके अधिकार भी दें
**अनुराधा चौहान***

Sunday, July 1, 2018

नन्ही सी चिरैया

(चित्र गूगल से संगृहीत)

उम्र थी उसकी छोटी सी
बच्ची थी वो इक नन्ही सी
आँखों में उसके चंचलता
थी बातें उसकी मोहक सी
पैरों में उसके पायल थी
वो छमक छमक कर चलती थी
न चिंता कोई फिकर उसे
न दुनिया की थी समझ उसे
उन्मुक्त गगन में उड़ने वाली
वह इक नन्ही सी चिरैया थी
उसको हैवानों ने देख लिया
पंजों में अपने जकड़ लिया
फूलों की नाजुक कली को
पल भर में मसल कर फेंक दिया
यह कैसी दुनिया जालिमों की
यहाँ बचपन भी महफूज नहीं
उनके करूण क्रंदन का
हैवानों पर कोई असर नहीं
यह वहशी जालिम हत्यारे
इनको जीने का कोई हक नहीं
***अनुराधा चौहान***