Followers

Thursday, August 30, 2018

जमाना बैरी बन बैठा

ख्वाबों के महल बहुत बड़े हैं
राह में अजगर बहुत पड़े हैं
कैसे मंज़िल को में पाऊँ
जमाना बैरी बन बैठा
राह में आगे बढ़ते जाते
जब निकलूँ में किसी मोड़ से
खड़े मिलते वहाँ हैवान
जमाना बैरी बन बैठा
कठिनाई भरा नारी जीवन
सबके मन की करते करते
जहाँ ऊँची भरी उड़ान
जमाना बैरी बन बैठा
सबके संग प्यार बाँटकर
सबको अपने साथ जानकर
हमने थोड़ा जीना चाहा
जमाना बैरी बन बैठा
किसी के संग दो बातें करली
किसी के संग जरा क्या हँसली
सच्चाई को बिना ही समझे
मचता हाहाकार
जमाना बैरी बन बैठा
कब तक यह रीत चलेगी
नारी यूँ ही झुकती रहेगी
छू पाएगी क्या आकाश
जमाना बैरी बन बैठा
***अनुराधा चौहान***


राजपूत

देश की शान
राजपूत महान
जग में नाम

युद्ध मैदान
तलवार से गूँजा
दामिनी स्वर

विजयी ध्वाज
युद्ध के मैदान में
शत्रु परास्त

धरती पुत्र
शूरवीर महान
कर्म प्रधान

की अनदेखी
आरक्षण का तीर
सीने के पार

देश की शान
इतिहास गवाह
आज बेगाने

पीठ पे वार
अपनों के ही हाथ
ठगे से खड़े

***अनुराधा चौहान*** मेरा प्रथम प्रयास हाइकु

Monday, August 27, 2018

सफर

आज फिर विदाई
माँ बाप के आंगन से
सहेज कर कुछ नई
अनमोल यादों को
सहेज कर कुछ
रोमांच भरी बातें
जो निकली थी
पुरानी यादों की
पोटली से
और बड़े भाई संग
बिताए पलों को याद कर
नम हो आईं आंखों से
कभी न भरने वाले
खालीपन का एहसास लिए
निकल दी फिर सफर पर
सबका प्यार समेट
बच्चों की मीठी
मनुहार लिए
जीने वही जिंदगी
अपने परिवार के साथ
जो अब मेरा हिस्सा है
मेरा जीवन है
यही जीवन चक्र है
यादों को सहेज कर
समय के साथ
जिंदगी के सफर में
आगे बढ़ते हुए
अपने कर्त्तव्य का
निर्वाह करने के लिए
***अनुराधा चौहान***


Friday, August 24, 2018

मन की पीड़ा

जब अंतर्मन में
खुलती है
पुरानी यादों की
परतें तब मन में
एक अजीब बैचेनी
जन्म लेने लगती है
कुछ अच्छी यादें
सुकून देती
तो कुछ यादें बड़ी
दर्द भरी होती
जो सिर्फ दर्द के
एहसास जगाती
कुछ जख्म वक्त
ऐसे दे जाता
जो भरते नहीं
किसी मरहम से
एक ऐसा खालीपन
जो कम नहीं होता
किसी भीड़ में
आज रेल का सफर
याद दिला रहा
एक ऐसा सफर
जिसमें टूट कर
बिखर गए धागे राखी के
छूट गई वो कलाई
सारे रंग सारी खुशियां
दे गया सिर्फ
एक खालीपन
कभी न खत्म होने वाली
मेरे मन की पीड़ा
बहुत दर्द भरी है
तुम बिन पहली राखी
***अनुराधा चौहान***

Wednesday, August 22, 2018

प्रभू क्यों आंखें मूंदे हो

इस युग के लोगों से
प्रभू कैसी तेरी दूरी है
क्यों फेर ली आंखें हमसे
ऐसी क्या मजबूरी है
कभी द्रोपदी की एक पुकार पर
प्रभू तुम दौड़े दौड़े आए थे
आज कई द्रोपदी सिसक रहीं
प्रभू क्यों आंखें मूंदे हो
कभी सुदामा के आंसू पर
अपना सर्वस्य लुटाया था
आज कई सुदामा बेबस भूखे
प्रभू क्यों आंखें मूंदे हो
नित चक्रव्यूह रचे जा रहे
और अभिमन्यु बेमौत मरते हैं
हे अंतर्यामी सब जानकर
अब भी आंखें मूंदे हो
दुशासनों से भरी दुनिया में
भीष्म पितामह मौन है
हे गिरधारी आंखें खोलो
तुम क्यों इतने मौन हो
बोला था जब पाप बढ़ेंगे
तुम धरती पर आओगे
मिटा पाप  को धरती से
नया युग लेकर आओगे
त्राहि-त्राहि करती अब नारी
धरती की फटती है छाती
रोता अंबर फाड़ कलेजा
प्रभू क्यों आंखें मूंदे हो
इस युग के लोगों से
प्रभू कैसी तेरी दूरी है
क्यों फेर ली आंखें हमसे
ऐसी क्या मजबूरी है
***अनुराधा चौहान***

Tuesday, August 21, 2018

आँखों ही आँखों में

रेत के घरोंदों से
बिखर जाते हैं सपने मेरे
जब तुम पास होकर भी
पास नहीं होते हो
कभी आँखों ही आँखों में
समझ लेते थे
जो दिल की बातें
आज जुबां से कहूँ
फिर भी नहीं समझते
कभी हाथों में हाथ थाम कर तेरा
खुली आँखों से देखे थे जो सपने
आज आँखें बंद करूँ
तो कोई नजर नहीं आते
बीत रही है उम्र इस बेरुखी में तेरी
कब छीन ले मौत यह जिंदगी हमसे
आ दो घड़ी बैठ पहलू में मेरे
फिर से आँखों ही आँखों में
करले कुछ दिल की बातें
***अनुराधा चौहान***

Monday, August 20, 2018

जीवन का सच

वो क्यों बोला
तू क्यों बोला
हम क्यों बोलें
बस जीवन नैया
भंवर में डोले
उसे क्या करना
तुझे क्या करना
हमें क्या करना
बस इसी में बीते
यह दिन रैना
वो क्यों आया
तू क्यों गया
हम क्यों जाएं
बस इन बातों से
आपस में टकराएं
इसने नहीं देखा
उसने नहीं देखा
हमने नहीं देखा
फिर भी खिच गई
बीच में लक्ष्मण रेखा
क्यों न हम भी करें
तुम भी करो
वो भी करें
आओ हम मिलकर
जीवन सार्थक करें
***अनुराधा चौहान***

Saturday, August 18, 2018

भयावह यह मंजर है

उजड़ते घर बिखरते लोग
प्रभू कैसी यह लीला है
हरे भरे सुंदर केरल को
कैसे विनाश ने घेरा है
कहीं नाम की बारिश
कहीं पर आफत बन बरसे
कुदरत की कैसी लीला
जो इंसां को ही निगले
फसे कई बेजुबान जानवर
बह गए सपने भी सारे
बाढ़ की इस विभीषिका में
उजड़ गए आशियाने भी
किसी के माँ बाप बिछड़े हैं
तो कहीं बच्चे बिलखते हैं
फसी पानी में जिंदगियां
दाने दाने को तरसती हैं
हरियाली से सजे स्वर्ग का
कैसा भयावह यह मंजर है
जिधर तक है नजर जाती
वहां तक दिखता है पानी
आंखों में नमी लेकर
जगह रहने की ढूंढ़े हैं
यह भीषण बाढ़ का मंजर
बड़ा दिल को है दहलाता
प्रभू अब रोक दो बारिश
यह विनाश भी थम जाएं
जो बिछड़ी हैं जिंदगियां
वो आपस में मिल जाएं
***अनुराधा चौहान***


Friday, August 17, 2018

मेरा मुझ से परिचय

यह जिंदगी ही है
जो कराती सबका परिचय
इस सुंदर दुनिया से
इस सुंदर प्रकृति से
उस मां की गोद से
जिसने हमें जन्म दिया
यह जिंदगी मुझे मिली
मेरा मुझ से परिचय हुआ
मुझे एक नाम मिला
इस दुनिया से परिचय हुआ
बड़ी कमाल है जिंदगी
जो परिचय कराती
हमें हमारे वजूद से
मिलवाती हमें माँ बाप से
और ढेर सारे रिश्तों से
जब तक जिंदगी रहती
नित नया तजुर्बा देती
और उस प्रभू से
परिचय कराती जो हमें
देता है जिंदगी
हरदम नये मकसद से
हमारा परिचय कराती
हमें एक नाम देती
जिंदगी है तो हम हैं
नहीं है तो कुछ नहीं
धन्य है जिंदगी
जो तु मुझे मिली
कुछ कर गुजरने
की चाहत मिली
तेरे दम से हमें
एक पहचान मिली
***अनुराधा चौहान***

Thursday, August 16, 2018

वो सदा अटल थे


जिंदगी की धूप छांव में
हरदम वो अटल खड़े थे
मौत से ठान युद्ध
वो अटल जिए थे
न हार कभी मानी थी
न हार कभी मानेंगे
जिंदगी में हरदम
उनके अटल इरादे थे
काल के कपाल पर
गीत नए लिखते थे
साथ सभी के सुख-दुख में
कदम मिलाकर चलते थे
विशाल उनका हृदय था
जलाया आंधियों में दिया था
ऐसे महान व्यक्तित्व को
हरदम उन्होंने जिया था
बोलते थे वो सदा
मौत की उम्र है क्या
मैं जी भर जिया
मैं मन से मरूं
मैं लौटकर फिर आऊंगा
कूच से फिर क्यों डरूं
देख के तूफान की तेवरी तन गई
एक बार फिर उनकी
मौत से थी ठन गई
हारी भले ही जिंदगी की
आज उन्होंने जंग है
पर अपने अटल इरादों से
वो हमारे दिल में अजर अमर है
पूर्व प्रधानमंत्री, महान कवि श्री अटल बिहारी वाजपेई को समर्पित यह कविता
***अनुराधा चौहान***

Wednesday, August 15, 2018

पूनम का चाँद

पूनम की रात थी
काले बादलों का डेरा था
चाँद की चाँदनी पर
लगा बादलों का पहरा था
फैले घने अंधियारे में
इक अजीब बैचेनी सी
कर रही प्रिय का इंतजार
वो थी कुछ सहमी हुई
देख उसके मन की व्यथा
हवा उसे सहलाने लगी
सन्नाटे को चीरने के लिए
कोई धुन वो गुनगुनाने लगी
अंधेरे को दूर करने
जुगनू भी मंडराने लगे
देख कर यह नजारा
बदली भी सब समझ गई
कर चाँद को आजाद
कुछ दूर वो सरक गई
छिटक चाँद से चाँदनी
धरा को रोशन कर गई
रोशनी में देख किसी साये को
वो जाकर उससे लिपट गई
देख पूनम के चाँद को
वो भी मुस्काने लगी
पूनम की यह रात
पिया मन भानें लगी
***अनुराधा चौहान***

Tuesday, August 14, 2018

जय हिन्द जय भारत

सकल विश्व में भारत की
धर्म ध्वजा फहराएंगे
कर प्रकाशित दीप ज्ञान का
अज्ञानता दूर हटाएंगे
हटा प्रलय की घोर घटाएं
सुख का सूरज ले आएंगे
सकल विश्व में भारत माँ की
जय जय गान गाएंगे
आजादी के मतवालों सा
जोश मन में जगा लेना
अंतर्मन में बीज द्वेष के
जड़ से सभी हटा देना
मानवता की पीर मिटाकर
ममता की मरहम रखना
वीर शहीदों की कुर्बानी
व्यर्थ नहीं होने देना
दुश्मन घर से दूर भगाकर
भारत की जय गाएंगे
सकल विश्व में धर्म पताका
हम मिलकर फहराएंगे
विजयी तिरंगा रहे ऊँचा
इसका मान सदा रखना
जिनके दम से मिली आजादी
उनको भूल नहीं जाना
वीर सपूतों की जननी का
जग में मान बढ़ाएंगे
हम भारत के वासी हैं
भारत की जय-जय गाएंगे।
जय हिन्द जय भारत

***अनुराधा चौहान***

Sunday, August 12, 2018

कर्मभूमि

वीरों की यह कर्मभूमि
पावन धरती हिंदुस्तान की
वीर शिवाजी वीर प्रताप की
यह पावन कर्मभूमि
यह जननी पृथ्वीराज चौहान की
कण कण में इसके लहू मिला
आजादी के मतवालों का
दूर दूर तक शोर गूंजता था
आजादी के नारों का
भूल गए सब राजगुरु
सुखदेव भगत की कुर्बानी को
हंसते हंसते फांसी चढ़ गए
हार न उन्होंने मानी थी
आजादी के लिए जिए
आजाद ही वह शहीद हुए
ऐसे चंद्रशेखर आजाद की
कुर्बानी कैसे भूल गए
भुला कर उनके उपकारों को
जब आतंकवादियों के
होते जय जयकारे हैं
कुछ बुद्धिजीवी उठकर
उनकी सुरक्षा में आगे आते हैं
गौतम नानक की पुण्यभूमि में
अब हरदम हिंसा होती है
हर रोज किसी कोने में पड़ी
इक बेटी तड़पती मिलती है
कैसे वो अनदेखा करते
उस विधवा के आंसू को
सुहाग जिसका शहीद हुआ
देशप्रेम की ज्वाला में
नित कोख उजड़ती मांओं
नित सूनी होती राखी है
पर सत्ता के मतवालों को
लाज न बिलकुल आती है
अपने घर से बेघर होते
लोग उन्हें नहीं दिखते हैं
आरक्षण के अजगर
नित प्रतिभाओं को डसते है
चलो जगालें अपने दिल में
देशप्रेम की ज्वाला फिर
संस्कारों से करले सुशोभित
अपने प्यारे भारत को
वीरों की इस कर्मभूमि को
फिर से पावन बनाले हम
जय हिन्द जय भारत
***अनुराधा चौहान***







Friday, August 10, 2018

काश...

काश ....
कोई जरिया होता
तो हम भी खत लिखके
उस दुनिया में भेज देते
जहाँ तुम जा बैठे हो
काश....
एक बार फिर तुमसे
कर पाते कुछ बातें
क्यों बीच भँवर में
साथ छोड़ा
लिखते उन्हें वे सारी बातें
कुछ अपनी लिखते
कुछ उनकी पढ़ते
कर लेते उस दुनिया की
 ढ़ेर सारी बातें
जहाँ वो चले गए
हमारी नजरों से दूर
खत के जरिए
बताते उन्हें अपने
दिल का हाल
बताते तुम बिन
राखी सूनी है
सावन भी फीका है
माँ का आंगन सूना है
पिता कुछ कहते नहीं
पर आँखों के किनारे
नम रहते हैं
छुप-छुपकर के
आँखों से आँसू हरदम बहते हैं
काश..
उस जहां में खत लिखकर
भेज पाते
***अनुराधा चौहान***


Wednesday, August 8, 2018

सुनो धरा कुछ बोलती

सुनो धरा कुछ बोलती
मनुज के कान खोलती
सँभल-सँभल चलो जरा
विनाश पथ ये डोलती

पहाड़ तुम जो काटते
नदी के तट को पाटते
मकां जो तुम बना रहे
अपनी चिता सजा रहे

यह इमारतें बड़ी बड़ी
शुद्ध हवाएं रोक रही
ये गाड़ियाँ बड़ी-बड़ी
जहर साँस है घोलती

जो पेड़ तुम हो काटते
हो संतुलन बिगाड़ते
जल धरा का सूख रहा
फिर भी नहीं हो मानते

निकल नालों से गंदगी
नदियों में जा मिल रही
आज वो दलदल बनी
विनाश गाथा कह रही

संभल चलो मनुज जरा
दुःख धरा का है बढ़ा
क्रोध का ये देख रूप
समस्त विश्व डर उठा

सुनो धरा कुछ बोलती
मनुज के कान खोलती
सँभल-सँभल चलो जरा
विनाश पथ ये डोलती
*अनुराधा चौहान स्वरचित ✍️*

Tuesday, August 7, 2018

शहादत

मातृभूमि का मैं वीर सपूत
अपना हर फर्ज निभा आया
माँ-बाबा तेरा मैं वीर सपूत
तिरंगे में लिपट घर आया हूं
खाली हाथ न लौटा हूं
दुश्मन को मार गिरा आया
धूल चटा धरती की उनको
मातृभूमि को भेंट चढ़ा आया
हुआ मेरा सीना छलनी मगर
मैं रुका नहीं मैं झुका नहीं
गिरा कई बार मगर फिर भी
उठ उठ कर लड़ा हूं मैं
जब तक लहू में गर्मी रही
तब तक दुश्मन से भिड़ा हूं मैं
फिर तिरंगा फहरा आया हूं
मैं जीत कर वापस आया हूं
भाई मेरे हिम्मत रखना
बहना को आज संभाल लेना
जब भी आए रक्षाबंधन
मेरी राखी भी बंधवा लेना
बन लाठी बुढ़ापे की तू
माँ-बाबा को सहारा देना
गर आंख में आंसू तेरे आएं
उनसे उन्हें छुपा लेना
मेरी शहादत पर तू अपने
आंसू मत जाया करना
वीर शहीद था तेरा भाई
इस बात की लाज सदा रखना
कर सीना फौलादी अपना
मुझको आज विदा करदे
तिरंगे में लिपटे मेरे बदन को
तू अपना कांधा दे-दे
भारत माँ के चरणों में
खुद को निसार कर आया हूं
मातृभूमि का में वीर सपूत
तिरंगे में लिपट घर आया हूं
शत् शत् नमन 🙏
***अनुराधा चौहान***

Monday, August 6, 2018

सुनो..

सुनो...
तुम सांझ ढले
जब भी आना
थोड़ी खुशियां
साथ ले आना
छोड़ आना अहम
किसी सड़क के किनारे
मैं भी आज
जला दूंगी
अपना अहम
चूल्हे की आग में
सुनो....
तुम सांझ ढले
जब भी आना
थोड़ी मुस्कुराहट
साथ ले आना
मैं भी आज
सजा लेती हूं
थोड़ी मुस्कुराहट
अपने होंठों पर
भुला सारे गिले-शिकवे
फिर शुरू करते हैं
एक नई जिंदगी
सुनो....
तुम सांझ ढले
जब भी आना
थोड़ा प्यार भी
साथ ले आना
मैं भी आज
प्यार जगा लेती हूं
पहले वाला
भुला सारे झगड़े
सारे अहम
जीते हैं जिंदगी
वही पहले वाली
***अनुराधा चौहान***

Saturday, August 4, 2018

मासूम मस्ती

काली घटा छाई
आई रे आई
बरखा रानी आई
बच्चों की शुरू हुई
छुपम छुपाई
मन को भाती
मासूम मस्ती
पानी में तैरती
कागज की कश्ती
नन्हें नन्हें पांवों से
करें पानी में छप छप
लगा कर सिर पर
पत्ते की छतरी
झूमे उनके संग
पवन पुरवाई
दादुर पपीहा ने
अपनी तान सुनाई
पेड़ों ने भी झूम
डालियां हिलाईं
बच्चे भी गाते
छई छप छई
देख मस्त मगन
मासूम मस्ती
याद आ गई
मुझे भी बचपन की
***अनुराधा चौहान***

मित्रता का रिश्ता

कृष्ण सुदामा की मित्रता
जगत में मशहूर है
मित्रता का रिश्ता
एक ऐसा रिश्ता
जो हर रिश्ते से
होता है अनोखा
बेहद प्यारा
दिल के करीब
एक सच्चाई लिए हुए
वह रिश्ता रहता है
जिंदगी की जिम्मेदारी में
जब हो जातें हैं व्यस्त
फिर भी मित्र के लिए
रहता हरदम वक्त
दूर कितने भी हो जाएं
पर मित्र की याद
सदा दिल मे रहती
बस मौका ढूंढ़ती
एक साथ वक्त बिताने का
यादें ताजा करने का
जो सुख दु:ख में
साथ खड़े होते हैं
वहीं सच्चे मित्र हैं
जब बिछड़ जाता है
कोई सच्चा मित्र
भगवान को भी
कष्ट होता है क्योंकि
भगवान को भी प्यारा है
मित्रता का रिश्ता
***अनुराधा चौहान***

Friday, August 3, 2018

गरीब हूं साहिब

मैं दूसरों के सपनों को
साकार करती हूंँ
गरीब हूं साहिब
तो क्या हुआ
मैं भी हर रात
सपने बुनती हूंँ
फिर सुबह तोड़ती हूंँ
पत्थरों की तरह
डाल आतीं हूंँ
किसी सड़क पर
उसके निर्माण के लिए
यह सड़क नहीं साहिब
यह गरीब के सपने हैं
जो रात भर संँजोते है
सुबह पूरे करते हैं
अपने बच्चों के लिए
गरीब हूंँ तो साहिब
तो क्या हुआ
मैं भी सपने बुनती हूं
फिर सुबह ढ़ोती हूंँ इन्हें
सिर पर ईंटों की तरह
तब यह दीवारों में
जाकर चुनती है
तब बनता है आपका
सपनों का घर
वह घर नहीं साहिब
सपने हैं गरीब के
जो वह पूरे करते हैं
तब कहीं जाकर
भरते हैं पेट बच्चों का
तब पाते है कपड़े
तन को ढकने के लिए
गरीब हूंँ साहिब
तो क्या हुआ
मैं भी सपने बुनती हूंँ
और निर्माण करती हूंँ
औरों के सपनों का
***अनुराधा चौहान***





Thursday, August 2, 2018

ख्वाब है जिंदगी

कुछ ख्वाब बुनती हूं
कुछ ख्वाब लिखती
कुछ ख्वाब अधूरे
आज भी जिंदा है
स्मृति पटल पर
खलल डालते रहते
अंतर्मन में सदा
मैं खुद ही सवाल करती
खुद ही जबाब लिखती
इसे मेरी कहानी समझो
या मेरी कोई कविता
यह ख्वाब है मेरे मन के
बस शब्दों का आकार देती हूं
सोचो तो ख्वाब है जिंदगी
न सोचो तो अधूरा कुछ नहीं
जियो जिंदगी खुल कर
खूबसूरत एहसास के साथ
क्योंकि बड़ी
अनमोल है जिंदगी
आज है तो कल
हाथ से फिसली
जी लो जी भर के
खुद ख्वाब है जिंदगी
***अनुराधा चौहान***

Wednesday, August 1, 2018

ख्वाब कभी मरते नहीं


ख्व़ाब कभी मरते नहीं
दब जाते हैं बोझ तले
कभी जिम्मेदारियों
तो कभी दूसरों के ख्व़ाब तले
बहुत भाग्यशाली होते हैं
जिनकी पूरी होती है ख्वाहिश
अकसर छुप जाते हैं ख्व़ाब
किसी दराज के कोने में
किसी किताब के अंदर
तो किसी के जल जाते हैं
रोटियों की तरह
ढूँढ़ते हैं वजूद अपना
मन के किसी कोने में
जिसका कभी वो हिस्सा थे
जगाते हैं फिर एहसास
एक चाहत जीने की
ख्व़ाबो को पूरा करने की
लम्हा लम्हा बीत रहा वक्त
फिसल रही हाथ से ज़िंदगी
जी ले अपनी जिंदगी
दबे हुए एहसास जगाकर
कर ले पूरे ख्व़ाब अधूरे
***अनुराधा चौहान***
चित्र गूगल से साभार