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Saturday, February 29, 2020

वैमनस्य का कारण(नवगीत)

वैमनस्य का कारण ढूँढो,
झाँक जरा भीतर की ओर।
उठकर अपनी आँखें खोलो,
देखो आई सुंदर भोर।

उथल-पुथल क्यो मन के अंदर,
कोई न कारण जान सके।
उगता हुआ सूरज भी मन में,
कोई उजाला भर न सके।
मुश्किल से मत डरकर भागो,
डर से मिले न कोई छोर।
उठकर अपनी आँखें खोलो,
देखो आई सुंदर भोर।।

वैमनस्य का कारण ढूँढो,
झाँक जरा भीतर की ओर।
उठकर अपनी आँखें खोलो,
देखो आई सुंदर भोर।।

चाह सुख की मन में बसी है,
तन को चाहिए बस आराम।
श्रम के बिना न जीवन सँवरे,
बनता कभी न बिगड़ा काम।
मेहनत का दामन न छोड़ो,
खुशियों की यह पक्की डोर।
उठकर अपनी आँखें खोलो,
देखो आई सुंदर भोर।।

वैमनस्य का कारण ढूँढो,
झाँक जरा भीतर की ओर।
उठकर अपनी आँखें खोलो,
देखो आई सुंदर भोर।।

***अनुराधा चौहान***
चित्र गूगल से साभार

Friday, February 28, 2020

दूर क्षितिज के कोने से

दूर क्षितिज के कोने से अब,
सूरज उगने वाला है।
पूरब से जब झाँकी किरणें
बिखरा लाल उजाला है।।

आशा की किरणों से रोशन,
धरती की हर एक गली।
महका रही धरा का आँगन,
मुस्काती हर एक कली।
चमकीली लहरों से खेले,
जैसे कोई ग्वाला है।
दूर क्षितिज के कोने से अब,
सूरज उगने वाला है।

पूरब से जब झाँकी किरणें
बिखरा लाल उजाला है।।
दूर क्षितिज के कोने से अब,
सूरज उगने वाला है।

आँखों में उजियारा भरके,
आलस छीने नव विहान।
उम्मीदों की किरणें देकर,
जीवन का करता निर्माण।
सिंदूरी आभा संग चमके,
मन का सूना आला है।
दूर क्षितिज के कोने से अब,
सूरज उगने वाला है।

पूरब से जब झाँकी किरणें
बिखरा लाल उजाला है।।
दूर क्षितिज के कोने से अब,
सूरज उगने वाला है।

***अनुराधा चौहान*** 
चित्र गूगल से साभार

Wednesday, February 26, 2020

भावों का सागर (नवगीत)

भावों के अथाह सागर में,
 दिल की नैया क्यों खाली है।
सहसा ही जब तंद्रा टूटी,
लगा रैन होने वाली है।

ढलते-ढलते साँझ चली जब ,
कहती मन उजियारा करले‌।
उड़ने चला पखेरू बनकर ,
मन को अपने काबू करले।
पंछी उड़ते कलरव करते,
साँझ घनी होने वाली है।
भावों के अथाह सागर में,
दिल की नैया क्यों खाली है।
सहसा ही जब तंद्रा टूटी,
लगा रैन होने वाली है।

भावों के अथाह सागर में,
 दिल की नैया क्यों खाली है।
सहसा ही जब तंद्रा टूटी,
लगा रैन होने वाली है।

पल-पल बीत रहा है जीवन,
कब अंत घड़ी आ द्वार खड़ी।
जब अपने सपनों से निकले,
तो खुशियाँ आकर पास खड़ी।
कह रही अब समय की धारा,
भोर नयी होने वाली है।
भावों के अथाह सागर में,
दिल की नैया क्यों खाली है।
सहसा ही जब तंद्रा टूटी,
लगा रैन होने वाली है।

भावों के अथाह सागर में,
दिल की नैया क्यों खाली है।
सहसा ही जब तंद्रा टूटी,
लगा रैन होने वाली है।
***अनुराधा चौहान***
चित्र गूगल से साभार

Tuesday, February 25, 2020

कल्पना

कल्पना ये कल्पना है,
आपके बिन सब अधूरी।
शब्द जालों में उलझती,
बनी नहीं कविता पूरी।।

मौन रहकर सोचता मन,
आग यह कैसी लगी है।
हर तरफ उठता धुआँ है,
 स्वप्न चिंगारी लगी है।
ढूँढ़ते अब राख में हम ,
सुलगे हुए स्वप्न सिंदूरी
शब्द जालों में उलझती,
बनी नहीं कविता पूरी।।

कल्पना ये कल्पना है,
आपके बिन सब अधूरी।
शब्द जालों में उलझती,
बनी नहीं कविता पूरी।।

छोड़ के जिन रास्तों को,
यह कदम आगे बढ़े थे।
लौट आना हुआ मुश्किल,
प्राण संकट में पड़े थे।
अब वजह मिलती नहीं है,
ज़िंदगी रह गई अधूरी।
शब्द जालों में उलझती,
बनी नहीं कविता पूरी।।

कल्पना ये कल्पना है,
आपके बिन सब अधूरी।
शब्द जालों में उलझती,
बनी नहीं कविता पूरी।।

***अनुराधा चौहान*** 
चित्र गूगल से साभार

Monday, February 24, 2020

पायल भी चुप रहती

दिन औ रातें पलछिन रहती
गिनती मीत,
पीर जलाये आज विरह फिर
बनती रीत।

रसभरे करे आज बहाने
मिसरी घोल,
फाँसों से चुभते हैं दिल में
कड़वे बोल।
छलता है मानव ही सबको
करके झोल,
छुपी हुई सच्चाई जैसे
कछुआ खोल।

पायल भी चुप रहती अभी न
गुनती गीत,
पीर जलाये आज विरह फिर
बनती रीत।

याद दिलाए पल-पल पुरवा
चली बहकर,
भँवरो की गुँजन को सहती
कली हँसकर।
अँधियारे क्यों डूबे ज़िंदगी
कभी डरकर,
उमड़-घुमड़ आशा की बदली
चली भरकर।

विश्वास नींव सदा टिकती है
सच्ची भीत,
पीर जलाये आज विरह फिर
बनती रीत।।
***अनुराधा चौहान***
चित्र गूगल से साभार

पुरवाई डोल गई

नव पल्लव खिलते शाखों पे
पुरवाई डोल गई,
लहराकर आई कानों में
हौले से बोल गई।

मन के भावों को मैं लिखती
शब्दों को हूँ बुनती।
अबीर गुलाल के रंग चढ़ा
सपने को में गुनती।
लिख डाली कविताएं कितनी
कलम राज खोल गई।
लहराकर आई कानों में
हौले से बोल गई।

नव पल्लव खिलते शाखों पे
पुरवाई डोल गई।
लहराकर आई कानों में
हौले से बोल गई।

मधुवन फूला सुगंध फैली
महका फागुन सारा।
फागुन में भींगे तन मन से
मिटा बैर भी सारा।
भीगी भीगी हवा बसंती  
अमराई डोल गई।
लहराकर आई कानों में
हौले से बोल गई।

नव पल्लव खिलते शाखों पे
पुरवाई डोल गई।
लहराकर आई कानों में
हौले से बोल गई।‌
***अनुराधा चौहान*** 
चित्र गूगल से साभार

Thursday, February 20, 2020

शिव कैलाशी

 
है शिव शंकर जय गंगाधर
महा शंभू शिव जय जटाधर
भुजंग धारी जय शिवशंकर
क्रोध रूप शिव महा भयंकर

भस्म लपेटे महाकाल तुम
कालों पे सदा विकराल तुम
सृष्टिकर्ता तुम प्रलयंकर
नीलकण्ठ शंभु शशिशेखर

महादेव जय अर्द्धनारीश्वर
देवों के देव जय अमृतेश्वर
शिव भोले शंकर त्रिपुरारी
जटाजूट शिव डमरू धारी

जगकर्ता जय शिव शुभकारी
त्रिनेत्र धारी असुर संहारी
जय विश्वेश्वर जय कैलाशी
शिवशंकर जय अविनाशी

शिव ही शक्ति शिव ही दृष्टि
शिव-शक्ति से ही यह सृष्टि
शिव के समीप माँ पार्वती
दिव्य स्वरूप जगती निहारती

श्वेतांबर बाघंबर अंगे
नंदी भृंगी भुजंग संगे
शिव शंभू शुभ ज्योतिर्लिंगम्
पावन पुनीत हैं महालिंगम्

शिव ही धरती शिव ही अंबर
उमापति सदा शिव शंकर
शिव ही सत्य है शिव ही सुंदर
शिव की शक्ति बसी मन अंदर

बिल्व पत्र प्रिय भांग,धतूरा
उसके बिना नहीं भोग है पूरा
देवों में यह देव निराला
शिव कैलाशी बाबा भोला
*अनुराधा चौहान स्वरचित ✍️*

Monday, February 17, 2020

अनु की कुण्डलियाँ--11

61
पूजा
पूजा मनसे कीजिए,पूजा मन का भाव।
पूजा से मनके सदा,मिटते सभी अभाव।
मिटते सभी अभाव,मिटा जीवन से हर दुख।
पूजा से कल्याण,मिले मनचाहा हर सुख।
कहती अनु सुन बात,पिता सम देव न दूजा।
माता देवी मान,करो तुम निशदिन पूजा

62
दीपक
दीपक सा दमके सदा,जग में तेरा नाम।
करना जीवन में सदा,सुंदर सुंदर काम।
सुंदर-सुंदर काम,बनो तुम सबके रक्षक।
चलना सच की राह, नहीं बन जाना भक्षक।
कहती अनु सुन बात,रखो दिल सुंदर रूपक।
दिल में भरो उजास,जलो तुम बनकर दीपक

63
थाली
थाली में मेवा भरे,फिर भी खाली पेट।
बेटा अनदेखी करे,मात पिता को मेट।
मात पिता को मेट, बना फिरता वो राजा।
ममता सारी भूल,बजा के झूठा बाजा‌।
कहती अनु यह देख,दिया रिश्तों को गाली।
खाली करली आज,भरी मेवे की थाली।

64
बाती
बाती बनके दीप की,देना साजन संग।
बेटी से माता कहे,जीवन के यह रंग।
जीवन के यह रंग,बड़ों का आदर करना।
रखना सबसे प्यार,दुख से कभी मत डरना।
कहती अनु शुभ आज,लली ये शिक्षा पाती।
प्यारा घर परिवार,बनी दीपक की बाती।

65
आशा
आशा जो मन में जगी,हर मुश्किल आसान।
आशा के दम पे टिकी,मानव की पहचान।
मानव की पहचान,नहीं मर्यादा खोई।
जग में ऊँचा नाम,तभी जाने हर कोई।
कहती अनु यह देख,जगी हर मन जिज्ञासा।
करता वही कमाल, बड़ी है जिसकी आशा।

66
उड़ना
उड़ना चाहे मन कहीं,नील गगन के पार।
दूर क्षितिज में क्या छुपा,क्या है उसका  सार।
क्या है उसका सार,नहीं जानी यह  माया।
चाहे सभी जवाब,कहाँ यह शून्य समाया।
कहती अनु सुन बात, नहीं अब पीछे मुड़ना।
ढूँढो सही जवाब,तभी फिर सीखो उड़ना‌।
***अनुराधा चौहान***

खिलखिलाई धरा

बादलों ने ली अंगड़ाई,
खिलखिलाई ये धरा भी।
चंचला चमकती है आई,  
झिलमिलाई ये धरा भी।

 छूती मेरे तन को हौले
  पवन चले हौले-हौले।
उड़ता जाए भीगा आँचल
मुखड़ा से लट कुछ बोले।
दूर कहीं से आई उड़के
यादें झम से झाँक उठी।
अन्तर्मन की बातें सुनके
खिड़की पे आके बैठी।।

पेड़ों से लिपटी इतराई
किलकिलाई ये लता भी।
बादलों ने ली अंगड़ाई
खिलखिलाई ये धरा भी।।

कलियाँ चटकी खुुशबू फैले 
धरती है महकी महकी।
रिमझिम रिमझिम बरसे बरखा 
बूँदे हैं थिरकी थिरकी।
झूम रहा है तरुवर उपवन
झूम रहा है ये मन भी।
पल्लव पल-पल छेड़ रहे धुन
धरती झूमे जीवन भी।।

भीग वसुंधरा जब नहाई
लहलहाई ये धरा भी।।
बादलों ने ली अंगड़ाई
खिलखिलाई ये धरा भी।।
***अनुराधा चौहान***
चित्र गूगल से साभार

भावनाओं के भँवर

डूब रही नाव भँवर में,
मिला कहाँ अभी किनारा।
भावनाओं के भँवर में,
डूब गया मन बेचारा‌।

सींचते रहे मन में हम,
आशाओं के पौधों को।
मार्ग से चुन-चुन हटाते,
उगे हुए अवरोधों को।
खिल सकी न कोई कलियाँ,
महका न ये मन हमारा।
भावनाओं के भँवर में,
डूब गया मन बेचारा‌।

स्वप्न पालकी बैठी में,
ढूँढती रही घर मेरा।
झील सुंदर देख बैठी,
कमल खिला एक सुनहरा।
तोड़ने बैठी किनारे,
सपना कब हुआ हमारा।
भावनाओं के भँवर में,
डूब गया मन बेचारा‌।

खोजती पगडंडियों पर,
मैं छाप अपने पाँव की।
कहीं किसी कौने निकली,
यादें किसी के नाम की।
कह रही हवाएँ हौले,
देख टूटा है सितारा।
भावनाओं के भँवर में,
डूब गया मन बेचारा‌।
***अनुराधा चौहान***
चित्र गूगल से साभार

Wednesday, February 12, 2020

दलदल में फँसे

आज दलदल में फँसे,
हैं प्राण भी।
खींचते पल-पल फँसे,
हैं पाँव भी।

डूबते तिनका दिखा,
मन आस है।
है अजब माया रचे,
भ्रम पास है।
आग में झुलसे फँसे।
है जान भी।
आज दलदल में फँसे,
है प्राण भी।।

रोकते कैसे भला।
गुबार उठा,
बने झूठे बहाने,
उबार उठा।
टूटती आशा फँसी,
है नाव भी।
आज दलदल में फँसे,
है प्राण भी।।

मिटा न अँधेरा यहाँ,
कब भोर हो।
धोखाधड़ी का सदा,
ही शोर हो।
आँख ज्योति छीण हुई,
है आस भी।
आज दलदल में फँसे,
है प्राण भी।।

***अनुराधा चौहान***
चित्र गूगल से साभार

Saturday, February 8, 2020

अनु की कुण्डलियाँ-१०

55
मेरा
तेरा मेरा सोच के, बीते जीवन शाम,
माला लेकर हाथ में,जपते सीता राम।
जपते सीता राम,करे चुगली हर उसकी।
अपना सीना तान,जड़ें काटें कब किसकी।
कहती अनु यह देख,करे जो मेरा मेरा।
छोड़े सब फिर साथ,रहो करते फिर तेरा ।

56
सबका
सबका मालिक एक है,सबका दाता राम।
पीड़ा मनकी एक है,करना है आराम।
करना है आराम,मिले सब बैठे ठाले।
मिलता रहे अनाज,नहीं खाने के लाले।
आलस तन पे ओढ़,मिटा हर कोई तबका।
करले श्रम फिर आज,चले यह जीवन सबका।

57
आगे
आगे आगे हम चले,पीछे चलता काल,
मानव सच से भागता, होता फिर बेहाल,
होता फिर बेहाल,समय पल पल है बीते।
रोता फिर बेताल,लिए हाथों को रीते।
कहती अनु यह देख,सत्य से कब तक भागे।
करले अच्छे काम,चलो सब सबसे  आगे।

58
सावन
सावन में पानी नहीं, सरदी में बरसात।
जाने कैसा हो रहा,मौसम अब दिन रात।
मौसम अब दिन रात,कभी भी रूप बदलता।
गर्मी हो विकराल,लगे फिर जीवन जलता।
कहती अनु सुन बात,कभी था ये मनभावन।
भादों की क्या बात,नहीं बरसे अब सावन।

59
जाना
माया के वश में फँसा,छोड़े घर-परिवार।
जाना सबको एक दिन,दुनिया के उस पार।
दुनिया के उस पार,करे क्यों मारामारी।
लालच की लत छोड़,बुरी है यह बीमारी।
धन के पीछे दौड़,किसी ने सुख है पाया।
मिलता सुख परिवार,बड़ी यह ठगनी माया‌।

60
करना
पल-पल बीते दिन यहाँ,ढलती जीवन शाम
करना जीवन में हमें,कोई अच्छा काम।
कोई अच्छा काम,भला हो निर्बल मन का।
करता जगत प्रणाम,बना वो संगी जन का।
कहती अनु सुन बात,किसी को दे सुख हरपल।
मिलता दूना लौट,वही पल घूमे पल-पल

***अनुराधा चौहान***

Wednesday, February 5, 2020

पवन बसंती डोल रही

पुरवा सुगंध सुमन भरी
पवन बसंती डोल रही।
आशा की रंग-बिरंगी 
पतंग नभ में डोल रही।

पीत रंग ओढ चुनरिया
फागुन रस में झूम रहा।
मधुमास भरे रंग कई
हवाओं संग डोल रहा
कुंज-कुंज भंवरे डोलें
राग बहार छेड़ रही।
पुरवा..

वसुधा कर उठी श्रृंगार
ऋतु बासंती आ गई।
लरजती हुई डाली पे
कली खिली औ महक गई।
चंदा संग चमक-चमक,
चंद्रिका खिलखिला रही।
पुरवा...

सजते द्वार वंदनवार
बसंत की बहार में।
खिल उठे डाली पलास
जैसे दहकते प्यार में
लहर-लहर पुरवाई भी
कोई धुन गुनगुना रही।
पुरवा...
***अनुराधा चौहान***
चित्र गूगल से साभार

Monday, February 3, 2020

शिव स्तुति

ललाट भी विशाल है,गले भुजंग नाग है।
तरंग शीश गंग की,त्रिनेत्र लाल आग है।।

किरीट चंद्र शोभता,शुभा सती समीप है।
गणेश भी बसे वहाँ,जले जहाँ प्रदीप है।।

त्रिलोकिनाथ देव ये,कठोरता निवास है।
शिवा बने दयाल हैं,सती समीप वास है।।

बहाव वेग गंग का,लपेट के जटा धरी
घमण्ड भाव बोलती,धरा गिरूँ छटा भरी।।

शिवा सदा करो दया,करूण ये पुकार है।
पुकारते शिवा शिवा,शिवा खड़े अकार है।।

विराट रूप ये धरे,प्रतीक रोद्र रूप हैं।
अनादि भी अनंत भी,प्रकाश का स्वरूप है।।
***अनुराधा चौहान***
पञ्चचामर छंद
वार्णिक छंद चार चरण के इस छंद में 8 लघु 8 गुरु, कुल 16 वर्ण होते हैं चरणान्त सम होना चाहिए
मात्रा भार- 1212121212121212
चित्र गूगल से साभार

Saturday, February 1, 2020

क्या झूमोगे साथ मेरे

क्या झूमोगे साथ मेरे,
 फागुन की फुहार।
कह रही पुरवाई हौले,
छेड़ दिल के तार।

मंद चलती पवन बसंती,
मन मोहे झूमती।
बागों में कोयल की तान,
कान रस घोलती।
खोल घूँघट हँसतीं कलियाँ,
खिल आई बहार।
क्या झूमोगे साथ मेरे,
फागुन की फुहार।।

सुहानी हर भोर झूमके,
तार मन छेड़ती।
ऋतुराज संग खिल सुनहरी,
धूप तन सेंकती।
धड़कन का हर साज बोले,
बसंत ही बहार।
क्या झूमोगे साथ मेरे,
फागुन की फुहार।।

फूले पीले फूल सरसों,
चूनर लरहाए।
मधुमास के रंग रंगी,
हवा तन सुहाए।
बरसते हैं रंग घनेरे,
अद्भुत है बहार।
क्या झूमोगे साथ मेरे,
फागुन की फुहार।।
***अनुराधा चौहान***