(चित्र गूगल से साभार) |
नाच रहे दादुर पपीहा मोर
तपन घटी तपते जीवन की
हो गई धरती मगन मदहोश
शीतल मन हुआ
शीतल तन हुआ
फैली शीतलता चहुं ओर
अंगीकृत हुई जब धरा
बरखा की रिमझिम बूंदों से
सृजन हरियाली का अब देखो
होने लगा चहुं ओर
बिखर गई मोहक छटा
निखर गया धरती का स्वरूप
रिमझिम बूंदों की थाप पर
हर पत्ती हर डाली थिरके
मन होने लगा भाव विभोर
चमक चमक दामिनी मुस्काए
देख धरा उसे बांहे फैलाए
लेने को आगोश
घिर आई काली घटा घनघोर
***अनुराधा चौहान***
बहुत सुंदर रचना अनुराधा जी घटा घनघोर!!
ReplyDeleteतन धरा का कितना दहका
तब आई पावस घनघोर ।
सादर आभार कुसुम जी
Deleteकाली घटाएं वाहहह सुंदर
ReplyDeleteसादर आभार अभिलाषा जी
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