गरजती घटाएं
बरसता है सावन
कहीं सिर छिपाने को
तरसता है बचपन
न घर न घराना
न खाने का ठिकाना
कहीं अभावों में
पलता है बचपन
कहीं पैसो के बीच
खेलता है बचपन
गरीबी की गुलामी में जकड़ा है बचपन
भरने पेट अपना करते मजदूरी
दो वक्त रोटी खाने के लिए
तरसता है बचपन
कचरे के ढेर पर
सुख बीनता है बचपन
कहने को कहते सब
बचपन होता सुहाना
यह कैसा बचपन है
जो ढूढ़ता है ठिकाना
कभी बारिश से बचने
तड़पता है बचपन
कहीं सर्द हवाओं में
दम तोड़ता है बचपन
गरीबों के बच्चों का
होता दुखदाई बचपन
बने कई आश्रम इनकी मदद को
कहीं मिलता सुख है
कहीं शोषित होता बचपन
***अनुराधा चौहान***
बहुत मार्मिक रचना
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार आपका
Deleteब्लॉग बुलेटिन टीम की और मेरी ओर से आप सब को बाल दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं|
ReplyDeleteब्लॉग बुलेटिन की दिनांक 14/11/2018 की बुलेटिन, " काहे का बाल दिवस ?? “ , में आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
गहरी संवेदना से भरी कृति सखी ।
ReplyDeleteअप्रतिम।
बहुत बहुत आभार सखी
Deleteबहुत मार्मिक रचना
ReplyDeleteधन्यवाद सखी
Deleteआपकी लिखी रचना "मित्र मंडली" में लिंक की गई है. https://rakeshkirachanay.blogspot.com/2018/11/96.html पर आप सादर आमंत्रित हैं ....धन्यवाद!
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार आदरणीय
Deleteवाह। बहुत सुंदर रचना हृदय को छुती हुई।
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार आदरणीय
Deleteअंतस को बेधती मार्मिकता से भरपूर रचना प्रिय अनुराधा जी | कौन इस बेहाल बचपन को आ संवारे और इस अनंत पीड़ा से उबारे ?
ReplyDeleteसही कहा आपने बहुत बहुत आभार रेनू जी
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