खिलौना समझ कर तुम
कर गईं थीं टुकड़े दिल के
मैं अचंभित-सा खड़ा मौन
सुनता रहा तुम्हारे कटु वचनों
बींध दिया अंतर्मन मेरा
तेरे तीष्ण प्रहारों ने
रौंद डाले मेरे स्वप्नों को
अपने कदमों तले
लौट गईं तुम तो वापस
अपनी चकाचौंध भरी दुनियाँ में
मैं समेटता रहा खुद को
तिनका-तिनका बिखरने से
यादों में डूबते-उतराते
खड़ा हुआ अपने कदमों पर
संभला भी नहीं कि तुम लौट आईं
अतंस में प्रेम की लौ जगाती
फिर वही कोमल अहसास ले
यह कोई छल है या सत्य
या फिर वार करने का प्रयास कोई
गूंजती है आज भी कानों में
दिल भेदती हुई बातें
अनगिनत जख्म दे गईं थीं तुम
वक़्त के मरहम से संभला हूँ
फिर तुम्हें देख अचंभित हूँ
पर मृगतृष्णाओं के पीछे
भागना छोड़ दिया मैंने
प्रेम लताएं अब सूख चुकी है
समझ गया हूँ मैं यह खूब
रेगिस्तान में कोंपले नहीं खिलती
***अनुराधा चौहान***
ब्लॉग बुलेटिन की दिनांक 22/02/2019 की बुलेटिन, " भाखड़ा नांगल डैम" पर निबंध - ब्लॉग बुलेटिन “ , में आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
ReplyDeleteधन्यवाद आदरणीय शिवम् जी
Deleteबहुत सुन्दर सखी
ReplyDeleteसादर
बहुत खूब...... सखी
ReplyDeleteसस्नेह आभार सखी
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