आ बैठती हूँ झील के किनारे
चेहरे पर मुस्कान लेकर
रोज टूटती बिखरती हूँ
बीते लम्हों की याद लेकर
जाने किस स्याही से लिखे हैं
मेरी किस्मत के पन्ने
खुशियां आती हैं लौट जाती हैं
मेरी जीवन की दहलीज से
ग़म नहीं है तू नहीं पास
यह तो किस्मत है मेरी
जब भी कुछ अच्छा लिखती हूँ
जिंदगी के पन्नों पर
किस्मत की स्याही अकसर
पन्नों पर बिखर जाती है
फिर से बदरंग ज़िंदगी लिए
मैं खुद को वही पाती हूँ
खुद के हालात को सोचकर
अब रोती नहीं मुस्कुराती हूँ
कितना भी दौड़ लूँ ज़िंदगी में
लौटकर खुद को वही पाती हूँ
यह खाली पन्ने किस्मत के
कब खुशी के गीत लिखेंगे
कब खुशियों के कमल
मन की झील में खिलेंगे
तेरे वादों को याद लेकर अकसर
आ बैठती हूँ झील के किनारे
इंतज़ार है कि तू आए लौटकर
दिन कट रहे इसी आस के सहारे
***अनुराधा चौहान***
दर्द छलक उठा अनुराधा जी. बेहद उम्दा 👌 👌
ReplyDeleteहृदयस्पर्शी सृजन अनुराधा जी ।
ReplyDeleteहार्दिक आभार मीना जी
Delete
ReplyDeleteजी नमस्ते,
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (20-04-2019) को "रिश्तों की चाय" (चर्चा अंक-3311) पर भी होगी।
--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
आप भी सादर आमंत्रित है
- अनीता सैनी
सहृदय आभार सखी
Deleteसुन्दर रचना
ReplyDeleteबहुत बहुत शानदार अभिव्यक्ति सखी
ReplyDeleteदिल की गहराई से निकले शब्द।
अप्रतिम।