बहुत दिनों से सोचा मैं कुछ नया लिखूँ
पर क्या लिखूँ वही ज़िंदगी के झमेले
लाखों की भीड़ है पर इंसान अकेले
अपने-आप में मुस्कुराते खुद ही बतियाते
अगर वजह पूछ ली इसकी तो आँखे दिखाते
गप्पे-शप्पे,हँसना-गाना यह जमाना पुराना हुआ
महफिलों में यार की यार ही बेगाना हुआ
किए थे सजदे माँगी थी खुशियों भरी ज़िंदगी
खुशियाँ तो मिली अपनों की कमी से भरी
पहले घर बड़े थे पर सब दिल के करीब थे
छोटे से घरों में भी अब दूरियाँ बहुत है
न किसी की चिंता न ही कोई फिकर है
इंसानियत को अब इंसान से ही डर है
ज़िंदगी की दौड़ में ज़िंदगी ही पिछड़ती
उलझनें हैं इतनी उसी में रहती उलझती
दिखावा ही दिखावा फोकट का शोर-शराबा
सजदा करो दिल से करो दिखावा क्यों दिखाना
***अनुराधा चौहान***
चित्र गूगल से साभार
बहुत सुंदर और बेहतरीन रचना सखी।
ReplyDeleteवाह वाह सखी बहुत सटीक और सार्थक पंक्तियां आज के समय का पर्दाफाश करता ।
ReplyDeleteबेहतरीन सृजन।
हार्दिक आभार सखी 🌹🌹
Deleteआपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में " सोमवार 23 सितम्बर 2019 को साझा की गई है......... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteजी हार्दिक आभार मीना जी
Deleteगजब की प्रस्तुति
ReplyDeleteकहीं कहीं आक्रोश फुट पड़ा है
अनायास ही पीड़ा उमड़ पड़ी है।
क्या से क्या हो गए हैं लोग... पता ही नहीं।
घबराहट होती है बहुत।
बहुत सुंदर रचना..दिखावा.।यही तो सच है न आज।
ReplyDeleteहार्दिक आभार श्वेता जी
Deleteलाज़बाब सृजन अनुराधा चौहान जी
ReplyDeleteहार्दिक आभार दी
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