कीट के जैसी ज़िंदगी
जीने को हैं मजबूर
पल-पल गरल गरीबी का
पीने को हैं मजबूर
जूतों तले मसल जाते हैं
पल भर में उनके सपने
देखा जाता उन्हें हर कोण से
हिकारत भरी निगाहों से
लोगों के दृष्टिकोण की
फिर भी परवाह नहीं करते
मेहनत-मजदूरी करके
जीवन अपना निर्वाह हैं करते
तन पे नहीं सजता कभी
नया कपड़ा त्यौहारों में
सिल-सिल कर पहना जाता
पैबंद नया झलक जाता
सुलझाने में लगे रहते हैं
उलझनें अपने जीवन की
उलझन बंधु बनकर बैठी
ज़िंदगी जहन्नुम बन बैठी
फिर भी जी रहे हैं जीवन
हर पल बस एक आस में
शायद भविष्य लेकर आए
आने वाला कल सुनहरा
***अनुराधा चौहान***
चित्र गूगल से साभार
ReplyDeleteजी नमस्ते,
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (२७ -१०-२०१९ ) को "रौशन हो परिवेश" ( चर्चा अंक - ३५०१ ) पर भी होगी।
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
आप भी सादर आमंत्रित है
….
अनीता सैनी
ReplyDeleteकृपया शनिवार को रविवार पढ़े |
जी आभार सखी
Deleteआर्थिक और सामाजिक विषमता के भेद पर हृदयस्पर्शी सृजन अनुराधा जी ।
ReplyDeleteधन्यवाद मीना जी
Deleteआशा जरूरी है ...
ReplyDeleteनहीं तो वैसे ही प्रीत है इंसान ... गहरे भाव किल्ये सुन्दर रचना ...
मर्मस्पर्शी रचना ,सादर नमन अनुराधा जी
ReplyDeleteहार्दिक आभार सखी 🌹
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