जंगल अब कंक्रीट के,लील रहे हैं गाँव ।
बूढ़े बरगद कट रहे,कहाँ मिले अब छाँव ।।
गंध वाटिका खो रही,जल संकट से आज।
बिन जल मानव का नहीं,होगा कोई काज।।
कुसुमित कानन बीच में,मधुर प्रिया मुस्कान ।
कर जाती थी मौन ही,प्रियतम का प्रिय गान।।
कानन में क्रीड़ा करें,बेटी-चिड़िया संग।
वे भी मर्माहत हुए,हुआ मनुज बेढंग।।
कानन हरियाली घटी,सूखे सरिता ताल।
पर्यावरण विषाक्त है,नाच रहा सिर काल।।
***अनुराधा चौहान***
चित्र गूगल से साभार
बहुत सुंदर दोहे ,सखी
ReplyDeleteहार्दिक आभार सखी
Deleteबढ़िया दोहे।
ReplyDeleteहार्दिक आभार नितिश जी
Deleteजी नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (०८ -१२-२०१९ ) को "मैं वर्तमान की बेटी हूँ "(चर्चा अंक-३५४३) पर भी होगी
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का
महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
आप भी सादर आमंत्रित है
….
अनीता सैनी
हार्दिक आभार सखी
Deleteसटीक दोहे
ReplyDeleteधन्यवाद आदरणीय
Deleteअच्छी कृति
ReplyDeleteहार्दिक आभार आदरणीय
Deleteबहुत सुन्दर दोहे अनुराधा जी ।
ReplyDeleteबहुत सुंदर सार्थक दोहे
ReplyDeleteहार्दिक आभार आदरणीय
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