बड़े जतन से भरी हुई थी
छलक पड़ी सुख गगरी।
कदम-कदम पे विपदा घेरे
राह है काँटों भरी।
छिन गया है सुख-चैन सारा
फिर रहे बेसहारा।
भूख-प्यास से व्याकुल होते
मिला न कहीं सहारा।
रोग कोरोना बढ़ रहा है
देख आत्मा भय भरी।
बड़े जतन से भरी हुई थी
छलक पड़ी सुख गगरी।
पग में छाले बहुत पड़े हैं
दूर है मंजिल अभी।
बहता लहु दिल देख रो रहा
छोड़ेंगे न घर कभी।
सोच मजदूर चले अकेले
अँखियाँ नीर भर डरी।
बड़े जतन से भरी हुई थी
छलक पड़ी सुख गगरी।
रेत पर बने पदचिह्न सारे
कह रहे हैं कहानी।
कुचलते हैं सपने सुनहरे
कैसी ये मनमानी।
नौनिहाल बेदम से चलते
प्राण परवाह न करी।
बड़े जतन से भरी हुई थी
छलक पड़ी सुख गगरी।
***अनुराधा चौहान'सुधी'***
चित्र गूगल से साभार
धन्यवाद आदरणीय
ReplyDeleteहार्दिक आभार आदरणीया
ReplyDeleteअप्रतिम रचना।
ReplyDeleteहार्दिक आभार दी
Deleteबहुत सुंदर हृदय स्पर्शी रचना सखी ।
ReplyDeleteहार्दिक आभार सखी
Deleteवाह!!हृदयस्पर्शी रचना सखी ।
ReplyDeleteहार्दिक आभार सखी
Deleteमन के दर्द भरे भाव लिखे बिह बाखूबी ... दिल को छूते हुए ...
ReplyDeleteहार्दिक आभार आदरणीय
Deleteदेश को बनाने वालों की तकदीर में जब ऐसे हालात आते हैं तब संवेदनशील हृदय से ऐसी मार्मिक रचनाएँ आती हैं।
ReplyDeleteहार्दिक आभार आदरणीया
Deleteसादर नमस्कार ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (26 -5 -2020 ) को "कहो मुबारक ईद" (चर्चा अंक 3713) पर भी होगी,
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
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कामिनी सिन्हा
हार्दिक आभार सखी
Delete
ReplyDeleteपग में छाले बहुत पड़े हैं
दूर है मंजिल अभी।
बहता लहु दिल देख रो रहा
छोड़ेंगे न घर कभी।
सोच मजदूर चले अकेले
अँखियाँ नीर भर डरी।
बड़े जतन से भरी हुई थी
छलक पड़ी सुख गगरी।
हृदयस्पर्शी एवं भावपूर्ण अभिव्यक्ति अनुराधा जी ।
हार्दिक आभार सखी
Deleteबहुत बढ़िया
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