Saturday, June 27, 2020

काली बदली

उमड़-घुमड़ के काली बदरी
नीले अम्बर को घेरे
शीतल ठंडी पवन मचलती
घिरते हैं मेघ घनेरे।

नयन आस से देख रहे हैं
कब ये बदली बरसेगी।
कहीं हवा उड़ा न ले जाए
ये अखियाँ फिर तरसेगी।
बैरी पवन जरा हौले चल
उड़े संग नीरद तेरे।
उमड़-घुमड़ के काली बदरी
नीले अम्बर को घेरे

हाल बेहाल करती गर्मी
धूप देह को झुलसाती।
घनघोर घटाएं घिर घिर के
जनमानस को हर्षाती।
चपल दामिनी की थिरकन ने
डाले धरती पे डेरे।
उमड़-घुमड़ के काली बदरी
नीले अम्बर को घेरे

सुनो करे पुकार वसुंधरा
अब जोर-जोर घन बरसे।
हरियाली की ओढ़ चूनरी
धरती का भी मन हरषे।
मचल रहीं नदिया की लहरें
करने सागर के फेरे।
उमड़-घुमड़ के काली बदरी
नीले अम्बर को घेरे
***अनुराधा चौहान'सुधी'***

Tuesday, June 16, 2020

मौन बोलता है

अँधियारे आँगन आ बैठा
अंतस मौन बोलता है।
नीर नयन गालों पे ढुलके
गहरे राज खोलता है।

सन्नाटे की चादर ओढ़े
रात अँधेरा गहराता।
यादों के ताने-बाने ले
कुछ धीरे से कह जाता।
आँख मिचौली खेले चन्दा
बादल बीच डोलता है।
अँधियारे आँगन आ बैठा
अंतस मौन बोलता है।

छोड़ गए साजन परदेशी
होंठों की मुस्कान गई।
विरह वेदना मुझको देकर ।
खुशियों की सौगात गई
उम्मीदों की बैठ तराजू 
मन को हृदय तोलता है।
अँधियारे आँगन आ बैठा
अंतस मौन बोलता है।

कली खिली थी मन बगिया की
सूख गई वो फुलवारी।
पतझड़ में बिखरे पत्तो सी।
बिखर गई खुशियाँ सारी।
पाषाण शिला सी मैं बैठी 
भाव हृदय टटोलता है।
अँधियारे आँगन आ बैठा
अंतस मौन बोलता है।
***अनुराधा चौहान'सुधी'***
चित्र गूगल से साभार

Sunday, June 14, 2020

बरखा की बूँदे

थिरक उठी बरखा की बूँदे
झूम रहे हैं तरु सारे।
चपल दामिनी चमक चमक कर
क्या जाने किसे निहारे।

भीगा आँचल आज धरा का
राग छेड़ती पुरवाई।
महकी महकी सुगंध माटी
संग समेटे ले आई।
टापुर टुपुर साज छेड़ रही
शीतल जल भरी फुहारे।
थिरक उठी बरखा की बूँदे
झूम रहे हैं तरु सारे।

धानी चूनर अंग लपेटी
वसुंधरा श्रृंगार किए।
झुलस रही थी कबसे प्यासी
शीतल जल की आस लिए।
महक उठे वन उपवन जीवन
बदली से ओझल तारे।
थिरक उठी बरखा की बूँदे
झूम रहे हैं तरु सारे।

निर्झर झर-झर झरे गिरी से
ताल तलैया मुस्काते।
हुआ सुहाना मौसम प्यारा
सावन-भादो मन भाते।
नदियाँ बहती उफन-उफन के
मचल रहे सागर खारे।
थिरक उठी बरखा की बूँदे
झूम रहे हैं तरु सारे।
***अनुराधा चौहान'सुधी'***
चित्र गूगल से साभार

Wednesday, June 10, 2020

मोबाइल नशा

लगी है बीमारी बड़ी आज भारी
नयी नस्ल देखो मोबाइल की मारी

माँ-बाप,बेटे सभी घर में बैठे
मोबाइल के मारे रहे ऐंठे-ऐंठे

न माता की चिंता,न आँखों की परवाह।
सेल्फी पे गिनते हैं लोगों की वाह-वाह

कोई आँखें मींचे कोई दाँत दिखाता।
कोई काम कह दो, हमें कुछ न आता।

बनाकर के चेहरे बड़े टेढ़े-मेढ़े
लाइक और कमेंट ही डूबे रहते

कभी सब्जी जलती,कभी दूध उबलता।
अंदर से आरोप का लावा उफनता।

बड़ा ही अनोखा ये जादुई मोबाइल
घर बैठे-बैठे ही दुनिया दिखाई

विज्ञान की बात हो या इतिहास के पन्ने।
पहुँच जाते घर से ही सब कोने-कोने।

मगर ये बीमारी पड़ी आज भारी
दिन में सब सोते जगे रात सारी

गुलामी को इसकी खुद ही ओढ़ते हैं
स्वतंत्र जीवन से खुद मुख मोड़ते हैं

बड़ा ही बुरा अब आया जमाना
मोबाइल है दोषी नहीं किसी ने माना

नहीं संग हँसते न ही बोलते हैं
मोबाइल के सुख में सभी डोलते हैं

लगी है बीमारी बड़ी आज भारी
नयी नस्ल देखो मोबाइल की मारी
***अनुराधा चौहान'सुधी'***
चित्र गूगल से साभार