धूप भी चुभने लगी है
साँझ भी चुपचाप जागे।
मौन हुए इन रास्तों पे
बिखरते सपने अभागे।
समय चक्र कैसा चला है
चाँद सितारे भी चुप है।
चाँदनी झाँकें गली में
अँधेरा घनघोर घुप्प है।
व्याधियाँ हँसने लगी हैं
सो रहे दिन रात जागे।
मौन हुए इन रास्तों पे
बिखरते सपने अभागे।
मौत ताडंव आज देख
आस भी धूमिल हुई है।
होती आज मौन गलियाँ
कैसी ये चुभी सुई है।
मरी हुई मानवता के
नींद तज अहसास जागे।
मौन हुए इन रास्तों पे
बिखरते सपने अभागे।
चक्रव्यूह-सा भेद गहरा
बीच जीवन डोलता है।
राह से कंटक मिटे सब
भाव मनके बोलता है।
मुस्कुराएँ लोग फिर से
तोड़ ये कमजोर धागे।
मौन हुए इन रास्तों पे
बिखरते सपने अभागे।
***अनुराधा चौहान'सुधी'***
चित्र गूगल से साभार
चक्रव्यूह-सा भेद गहरा
ReplyDeleteबीच जीवन डोलता है।
राह से कंटक मिटे सब
भाव मनके बोलता है।
वाह!! बहुत सुंदर सखी,अब इस चक्रव्यूह में दम घुट रहा, सादर नमन आपको
हार्दिक आभार सखी
Deleteआ अनुराधा जी, गीत विधा में लिखी गयी सुन्दर रचना। साधुवाद !
ReplyDeleteकृपया मेरे ब्लॉग के इस लिंक पर जाकर मेरी रचनाएँ पढ़ें और अपने विचार अवश्य दे।
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--ब्रजेन्द्र नाथ
हार्दिक आभार आदरणीय
Deleteबहुत ही सुंदर सृजन आदरणीय दी यथार्थ को इंगित करता .
ReplyDeleteसादर
हार्दिक आभार बहना
Deleteचक्रव्यूह-सा भेद गहरा
ReplyDeleteबीच जीवन डोलता है
हार्दिक आभार सखी
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