जीतने की होड़ ऐसी
मिट रही जग से भलाई।
बेवजह की अटकलों से
आपसी बढ़ती लड़ाई।
स्वार्थ के रंग रंगकर
अपनों से करली दूरी।
भेदी मन के मीत बने
कैसी जग की मजबूरी।
खुशियाँ अपने जीवन की
हाथों से आग लगाई।
जीतने की होड़ ऐसी....
देख दिखावे के पीछे
रास नहीं गलियाँ आती।
जीवन बीता जिस घर में
खाट नहीं वो मन भाती।
धन वैभव सिर चढ़ बोला
भूल गए अपने भाई
जीतने की होड़ ऐसी...
तिनका तिनका घर बिखरे
चैन सभी मन का खोते।
असली खुशियाँ दूर हुई
बैठ करम को फिर रोते।
अश्रु की नदिया बहे फिर
याद की चली पुरवाई।
जीतने की होड़ ऐसी...
©® अनुराधा चौहान स्वरचित ✍️
चित्र गूगल से साभार
आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" ( 2043...अपने पड़ोसी से हमारी दूरी असहज लगती है... ) पर गुरुवार 18 फ़रवरी 2021 को साझा की गयी है.... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
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ReplyDeleteसादर नमस्कार,
आपकी प्रविष्टि् की चर्चा शुक्रवार ( 19-02-2021) को
"कुनकुनी सी धूप ने भी बात अब मन की कही है।" (चर्चा अंक- 3982) पर होगी। आप भी सादर आमंत्रित हैं।
धन्यवाद.
…
"मीना भारद्वाज"
हार्दिक आभार सखी
Deleteबढ़िया अभिव्यक्ति
ReplyDeleteहार्दिक आभार आदरणीया
Deleteसुंदर भावों वाला सुंदर सृजन।
ReplyDeleteहार्दिक आभार सखी
Deleteसुन्दर प्रस्तुति.
ReplyDeleteसुन्दर रचना
ReplyDeleteहार्दिक आभार आदरणीय
Deleteभावपूर्ण रचना, शुभकामनाओं सह।
ReplyDeleteजीतने की होड़ ऐसी
ReplyDeleteमिट रही जग से भलाई।
बेवजह की अटकलों से
आपसी बढ़ती लड़ाई।
वर्तमान हालात को वर्णित करती सुन्दर रचना...🌹🙏🌹
जीतने की होड़ ऐसी
ReplyDeleteमिट रही जग से भलाई।
बेवजह की अटकलों से
आपसी बढ़ती लड़ाई।
बहुत ही सुंदर और यथार्थ वया करती रचना सखी,सादर नमन
बहुत बहुत सुन्दर रचना.
ReplyDeleteहार्दिक आभार आदरणीय।
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