टूटती जब साँस तन से
प्राण करता मौन मंथन।
याद आते उस घड़ी फिर
मौन हुए सारे बंधन।
नीर नयनों से छलकता
पूछती फिर प्रीत मन से।
क्यों मचलता आज ऐसे
कल फिरे अपने वचन से।
रोक लो आगे बढ़े पग
साँस महका आज चंदन।
टूटती जब आस....
मोह के बंधन पुराने
हाथ से कब छूटते हैं।
छोभ अंतस में पनपता
तार मन के टूटते हैं।
यूँ हथेली रोक लेती
चूड़ियों का मौन क्रंदन।
टूटती जब आस....
दीप सारे बुझ रहे जब
घेरती हर पल निराशा ।
रोशनी की चाह मरती
दूर होती रोज आशा।
लो झड़े फिर पुष्प सारे
सूखता है रिक्त मधुवन।
टूटती है आस.....
अनुराधा चौहान'सुधी'✍️
चित्र गूगल से साभार
जी नमस्ते ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (१४-०७-२०२१) को
'फूल हो तो कोमल हूँ शूल हो तो प्रहार हूँ'(चर्चा अंक-४१२५) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
मौन हुए बन्धनों पर जब सोचने बैठो तो तबाही सी लगती है अंदर आई हुई।
ReplyDeleteबहुत सुंदर रचना।
नई रचना पौधे लगायें धरा बचाएं
ये मोह ही है जो खुशियाँ भी देता है तो कभी रिक्तता भी ।
ReplyDeleteछूटते बंधनों पर बेहतरीन अभिव्यक्ति ।
हार्दिक आभार आदरणीया।
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ReplyDeleteआपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" में बुधवार 14 जुलाई 2021 को साझा की गयी है.............. पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
हार्दिक आभार आदरणीया।
Deleteमर्मस्पर्शी.
ReplyDeleteनमस्ते, अनुराधा जी.
हार्दिक आभार नूपुर जी।
Deleteबेहतरीन..
ReplyDeleteक्यों मचलता आज ऐसे
कल फिरे अपने वचन से।
रोक लो आगे बढ़े पग
साँस महका आज चंदन।
सादर..
हार्दिक आभार आदरणीया।
Deleteजीवन का एक यह भी रंग है जो अक्सर रंगहीन कर जाता है । सुन्दर सृजन ।
ReplyDeleteहार्दिक आभार अमृता जी।
Deleteमन की वेदना को व्यक्त करता सुन्दर,सरस गीत ।
ReplyDeleteसच है जब जब आस टूटती है ... माह में पीड़ा उठती है ... निराशा जनम लेती है ...
ReplyDeleteहार्दिक आभार आदरणीय।
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