तृष्णाओं में फसे रहना
यह है मानव की प्रवृत्ति
इसलिए मशीन बन के
रह गई आज उनकी जिंदगी
लगे हुए है सब एक दूजे
की कमियों को टटोलने
दिखावे के इस दौर में
फिरते तन्हाइयों के खोजते
रच रहे हैं सब चक्रव्यूह
यहां एक दूजे के वास्ते
इंसान ही आज फिरते
इंसानियत को मारते
उजाड़ कर चमन को
हवाओं में जहर घोलते
रिश्तों को अब सभी
मतलब के तराजू में तोलते
अब धूप भी खिलती है
इक अजीब तपन लिए
चाँद की शीतलता को
जैसे लग रही दीमक कोई
खो रहीं हैं रौनकें सब
आज आपसी द्वंद में
जबसे फसा मानव मन
तृष्णा के भँवर में
***अनुराधा चौहान***
यह है मानव की प्रवृत्ति
इसलिए मशीन बन के
रह गई आज उनकी जिंदगी
लगे हुए है सब एक दूजे
की कमियों को टटोलने
दिखावे के इस दौर में
फिरते तन्हाइयों के खोजते
रच रहे हैं सब चक्रव्यूह
यहां एक दूजे के वास्ते
इंसान ही आज फिरते
इंसानियत को मारते
उजाड़ कर चमन को
हवाओं में जहर घोलते
रिश्तों को अब सभी
मतलब के तराजू में तोलते
अब धूप भी खिलती है
इक अजीब तपन लिए
चाँद की शीतलता को
जैसे लग रही दीमक कोई
खो रहीं हैं रौनकें सब
आज आपसी द्वंद में
जबसे फसा मानव मन
तृष्णा के भँवर में
***अनुराधा चौहान***
चाँद की शीतलता को
ReplyDeleteजैसे लग रही दीमक कोई
खो रहीं हैं रौनकें सब
आज आपसी द्वंद में
जबसे फसा मानव मन तृष्णा के भँवर में...
जी आभार आपका
Deleteसुंदर प्रबुद्ध रचना...
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर और भावपूर्ण रचना
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार नीतू जी
Deleteबहुत भावपूर्ण और सुंदर रचना, अनुराधा दी।
ReplyDeleteजाने कितने छलावा भरे-पटे है आज समाज में
ReplyDeleteबहुत सुन्दर
धन्यवाद कविता जी
Deleteदिखावे के इस दौर में
ReplyDeleteफिरते तन्हाइयों के खोजते... जाने किस मृगमारिचिका में फंस गया है मानव , सुंदर रचना
बहुत बहुत आभार आपका
Deleteबहुत खूब अनुराधा जी सहज सरल प्रवाह में सुंदर चक्रव्यूह रचा तृष्णा का वाह ।
ReplyDeleteवाह
ReplyDeleteसुंदर कविता।आभार
धन्यवाद आदरणीय 🙏
Deleteजी नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना हमारे सोमवारीय विशेषांक २४ सितंबर २०१८ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।
हर काल के मानव मन में तृष्णा रही है.
ReplyDeleteये केवल आज के मानव की बात नही है.
खुबसुरत रचना.
बेहतरीन रचना अनुराधा जी 👌
ReplyDeleteआपका बहुत आभार अनिता जी
Deleteबहुत सुन्दर भावपूर्ण रचना...
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार सुधा जी
Deleteअब धूप भी खिलती है
ReplyDeleteइक अजीब तपन लिए
चाँद की शीतलता को
जैसे लग रही दीमक कोई
खो रहीं हैं रौनकें सब
आज आपसी द्वंद में
जबसे फसा मानव मन
तृष्णा के भँवर में!!!!!
यही तो तृष्णा है जो इन्सान को कहीं चैन से जीने नहीं देती | सार्थक रचना अनुराधा जी | सस्नेह --
बहुत बहुत आभार रेणू जी आपकी सार्थक प्रतिक्रिया हमेशा मेरा उत्साह बढ़ाती है
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