Wednesday, September 19, 2018

तृष्णा के भँवर में

तृष्णाओं में फसे रहना
यह है मानव की प्रवृत्ति
इसलिए मशीन बन के
रह गई आज उनकी जिंदगी
लगे हुए है सब एक दूजे
की कमियों को टटोलने
दिखावे के इस दौर में
फिरते तन्हाइयों के खोजते
रच रहे हैं सब चक्रव्यूह
यहां एक दूजे के वास्ते
इंसान ही आज फिरते
इंसानियत को मारते
उजाड़ कर चमन को
हवाओं में जहर घोलते
रिश्तों को अब सभी
मतलब के तराजू में तोलते
अब धूप भी खिलती है
इक अजीब तपन लिए
चाँद की शीतलता को
जैसे लग रही दीमक कोई
खो रहीं हैं रौनकें सब
आज आपसी द्वंद में
जबसे फसा मानव मन
तृष्णा के भँवर में
***अनुराधा चौहान***

21 comments:

  1. चाँद की शीतलता को
    जैसे लग रही दीमक कोई
    खो रहीं हैं रौनकें सब
    आज आपसी द्वंद में
    जबसे फसा मानव मन तृष्णा के भँवर में...

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  2. बहुत ही सुन्दर और भावपूर्ण रचना

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    1. बहुत बहुत आभार नीतू जी

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  3. बहुत भावपूर्ण और सुंदर रचना, अनुराधा दी।

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  4. जाने कितने छलावा भरे-पटे है आज समाज में
    बहुत सुन्दर

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  5. दिखावे के इस दौर में
    फिरते तन्हाइयों के खोजते... जाने किस मृगमारिचिका में फंस गया है मानव , सुंदर रचना

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  6. बहुत खूब अनुराधा जी सहज सरल प्रवाह में सुंदर चक्रव्यूह रचा तृष्णा का वाह ।

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  7. वाह
    सुंदर कविता।आभार

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  8. जी नमस्ते,
    आपकी लिखी रचना हमारे सोमवारीय विशेषांक २४ सितंबर २०१८ के लिए साझा की गयी है
    पांच लिंकों का आनंद पर...
    आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।

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  9. हर काल के मानव मन में तृष्णा रही है.
    ये केवल आज के मानव की बात नही है.
    खुबसुरत रचना.

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  10. बेहतरीन रचना अनुराधा जी 👌

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    1. आपका बहुत आभार अनिता जी

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  11. बहुत सुन्दर भावपूर्ण रचना...

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    1. बहुत बहुत आभार सुधा जी

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  12. अब धूप भी खिलती है
    इक अजीब तपन लिए
    चाँद की शीतलता को
    जैसे लग रही दीमक कोई
    खो रहीं हैं रौनकें सब
    आज आपसी द्वंद में
    जबसे फसा मानव मन
    तृष्णा के भँवर में!!!!!
    यही तो तृष्णा है जो इन्सान को कहीं चैन से जीने नहीं देती | सार्थक रचना अनुराधा जी | सस्नेह --

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    1. बहुत बहुत आभार रेणू जी आपकी सार्थक प्रतिक्रिया हमेशा मेरा उत्साह बढ़ाती है

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