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जिनकी शरारतों से
गूंजती थी हर गली
आज किताबों के बोझ तले
खो गई उनकी हंसी
शरारतें उनकी करती थी
हमको हंसने पर मजबूर
आज अकेले रहते रहते
खुद गए हंसना भूल
रिश्तों की बगिया में कभी
खिलता था बच्चों मन
आज शरारत कैसे करें
सूना है उनका बचपन
अब बैठना सीखते ही
बालवाड़ी की ओर चले
मां-बाप बिचारे अॉफिस में
वो आया की गोद में पले
घर में बंद,स्कूल में बंद
बंधा-बंधा उनका जीवन
शरारतें करने बैठे तो
कैसे पढ़ाई में आएं अव्वल
बदलते हैं तौर तरीके
बचपन उनका महकाते हैं
साथ उनके बच्चे बन कर
हम भी शरारत करते हैं
***अनुराधा चौहान***
सार्थक रचना सखी यथार्थ है ये बचपन ही नही रहा बच्चों के पास ।
ReplyDeleteबिल्कुल सही जी
ReplyDeleteबहुत ही सुंदर रचना।
हमने ही बाँध दी है उनकी हंसी ...
ReplyDeleteलाड दिया है कन्धों पे बस्तों का बोझ ... सच है हमें ही उतारना है ये बोझ उनका ...
धन्यवाद आदरणीय
Deleteसुन्दर रचना
ReplyDeleteधन्यवाद सखी
Deleteसचमुच बचपन को कितना बोझिल कर दिया पुस्तकों के बोझ और अकेलेपन ने | कुछ तो ऐसा करना दरकार है जो ये बेहाल बचपन मुस्कुरा उठे | सार्थक रचना प्रिय अनुराधा जी |
ReplyDeleteबहुत बहुत धन्यवाद रेनू जी
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