Sunday, September 1, 2019

चार सौ बीसी

चार सौ बीसी बड़ी बीमारी
बड़ों-बड़ों लगे यह प्यारी
शर्म को करके दाएं-बाएं
इसकी टोपी उसे पहनाएं
गरीब को लूटे नोंच-नोंचकर
साफ किए हाथ धो-पोंछकर
तन उजला और मन काला
नेक काम में भी घोटाला
चार सौ बीसी के यह धंधे
गरीब के गले के बने हैं फंदे
दुनिया इधर-उधर हो जाए
करतूतों से बाज नहीं आए
बातें करते बड़ी गोल-गोल
ढोल के अंदर छुपी है पोल
समा रही न दौलत घर-भीतर
दी है प्रभू ने फाड़ के छप्पर
गरीब घुन-सा पिसता जाए
चोरों को लाज नहीं आए
कैसी विकट है यह पहेली
भ्रष्टाचार की है यह सहेली
दोनों मिल उत्पात मचाते
कभी न कभी तो पकड़े जाते
लगे रहे चाहें कितने भी पहरे
खुल जाते सब राज यह गहरे
***अनुराधा चौहान***

चित्र गूगल से साभार

11 comments:

  1. और ये चार सो बीसी कभी न कभी खुल जाती है ...
    सच है चोरी लम्बे समय तक नहीं टिक पाती ... अच्छी रचना ...

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    1. हार्दिक आभार आदरणीय

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  2. आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" में मंगलवार 03 सितम्बर 2019 को साझा की गयी है......... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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  3. बहुत खूब सखी बहुत अच्छा लिखा आपने ।

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  4. चार सौ बीसी पर बहुत सुन्दर रचना...
    वाह!!!

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  5. बहुत ही सटिक अभिव्यक्ति

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    1. हार्दिक आभार संजय जी

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  6. चार सौ बीसी पर सुन्दर सटीक रचना।

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