चार सौ बीसी बड़ी बीमारी
बड़ों-बड़ों लगे यह प्यारी
शर्म को करके दाएं-बाएं
इसकी टोपी उसे पहनाएं
गरीब को लूटे नोंच-नोंचकर
साफ किए हाथ धो-पोंछकर
तन उजला और मन काला
नेक काम में भी घोटाला
चार सौ बीसी के यह धंधे
गरीब के गले के बने हैं फंदे
दुनिया इधर-उधर हो जाए
करतूतों से बाज नहीं आए
बातें करते बड़ी गोल-गोल
ढोल के अंदर छुपी है पोल
समा रही न दौलत घर-भीतर
दी है प्रभू ने फाड़ के छप्पर
गरीब घुन-सा पिसता जाए
चोरों को लाज नहीं आए
कैसी विकट है यह पहेली
भ्रष्टाचार की है यह सहेली
दोनों मिल उत्पात मचाते
कभी न कभी तो पकड़े जाते
लगे रहे चाहें कितने भी पहरे
खुल जाते सब राज यह गहरे
***अनुराधा चौहान***
चित्र गूगल से साभार
और ये चार सो बीसी कभी न कभी खुल जाती है ...
ReplyDeleteसच है चोरी लम्बे समय तक नहीं टिक पाती ... अच्छी रचना ...
हार्दिक आभार आदरणीय
Deleteआपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" में मंगलवार 03 सितम्बर 2019 को साझा की गयी है......... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteबहुत खूब सखी बहुत अच्छा लिखा आपने ।
ReplyDeleteहार्दिक आभार सखी
Deleteचार सौ बीसी पर बहुत सुन्दर रचना...
ReplyDeleteवाह!!!
हार्दिक आभार सखी
Deleteबहुत ही सटिक अभिव्यक्ति
ReplyDeleteहार्दिक आभार संजय जी
Deleteचार सौ बीसी पर सुन्दर सटीक रचना।
ReplyDeleteधन्यवाद दी
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