ज़िंदगी की उलझनों के
कुछ इस तरह उलझे
एक सिरा खींचा तो
दूसरे में जा उलझे
न मिला है कोई छोर
जो सुलझे हर डोर
बेवजह के पाले थे
शौक न जाने कितने
ज़िंदगी करदी अपनी
दिखावे के हवाले
रंग तो बहुत मिले
पर चैन अपनों का छूटा
साथी कई मिले
दिल अपनों का टूटा
ठोकरें जब मिली
तब ये होश आया
दिखावे ने कितना
अकेलापन दिलाया
चोट दिल पे लगाकर
अपनों को किया जुदा
चूर होकर घमंड से
खुद को समझ बैठे खुदा
आज खुद आ खड़े वही
जहाँ अपनों को छोड़ा
उलझनों के धागों ने
फिर इस दिल को तोड़ा
***अनुराधा चौहान*** स्वरचित ✍️
कुछ इस तरह उलझे
एक सिरा खींचा तो
दूसरे में जा उलझे
न मिला है कोई छोर
जो सुलझे हर डोर
बेवजह के पाले थे
शौक न जाने कितने
ज़िंदगी करदी अपनी
दिखावे के हवाले
रंग तो बहुत मिले
पर चैन अपनों का छूटा
साथी कई मिले
दिल अपनों का टूटा
ठोकरें जब मिली
तब ये होश आया
दिखावे ने कितना
अकेलापन दिलाया
चोट दिल पे लगाकर
अपनों को किया जुदा
चूर होकर घमंड से
खुद को समझ बैठे खुदा
आज खुद आ खड़े वही
जहाँ अपनों को छोड़ा
उलझनों के धागों ने
फिर इस दिल को तोड़ा
***अनुराधा चौहान*** स्वरचित ✍️
जी आभार आदरणीया
ReplyDeleteज़िंदगी की उलझनों के
ReplyDeleteकुछ इस तरह उलझे
एक सिरा खींचा तो
दूसरे में जा उलझे
बहुत खूब सखी
धन्यवाद सखी
Deleteजी नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना हमारे सोमवारीय विशेषांक
१३ जनवरी २०२० के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।
हार्दिक आभार श्वेता जी
Deleteबेहतरीन रचना अनुराधा जी।सादर नमन।
ReplyDeleteहार्दिक आभार सखी
Deleteशुभप्रभात, चोट जैसी नकारात्मक विषय पर भी आपने विस्मयकारी रचना लिख डाली हैं । मेरी कामना है कि यह प्रस्फुटन बनी रहे और हमारी हिन्दी दिनानुदिन समृद्ध होती रहे। हलचल के मंच को नमन करते हुए आपका भी अभिनंदन करता हूँ ।
ReplyDeleteहार्दिक आभार आदरणीय
Deleteवाह !बहुत ही हृदय स्पर्शी सृजन प्रिय सखी
ReplyDeleteसादर
हार्दिक आभार सखी
Deleteवाह! सखी ,बहुत उम्दा सृजन ।
ReplyDeleteहार्दिक आभार आदरणीय
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