Wednesday, January 8, 2020

उलझनें

ज़िंदगी की उलझनों के
कुछ इस तरह उलझे
एक सिरा खींचा तो
दूसरे में जा उलझे
न मिला है कोई छोर
जो सुलझे हर डोर
बेवजह के पाले थे
शौक न जाने कितने
ज़िंदगी करदी अपनी
दिखावे के हवाले
रंग तो बहुत मिले
पर चैन अपनों का छूटा
साथी कई मिले
दिल अपनों का टूटा
ठोकरें जब मिली
तब ये होश आया
दिखावे ने कितना
अकेलापन दिलाया
चोट दिल पे लगाकर
अपनों को किया जुदा
चूर होकर घमंड से
खुद को समझ बैठे खुदा
आज खुद आ खड़े वही
जहाँ अपनों को छोड़ा
उलझनों के धागों ने
फिर इस दिल को तोड़ा
***अनुराधा चौहान*** स्वरचित ✍️

चित्र गूगल से साभार

13 comments:

  1. जी आभार आदरणीया

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  2. ज़िंदगी की उलझनों के
    कुछ इस तरह उलझे
    एक सिरा खींचा तो
    दूसरे में जा उलझे

    बहुत खूब सखी

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  3. जी नमस्ते,
    आपकी लिखी रचना हमारे सोमवारीय विशेषांक
    १३ जनवरी २०२० के लिए साझा की गयी है
    पांच लिंकों का आनंद पर...
    आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।

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    1. हार्दिक आभार श्वेता जी

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  4. बेहतरीन रचना अनुराधा जी।सादर नमन।

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  5. शुभप्रभात, चोट जैसी नकारात्मक विषय पर भी आपने विस्मयकारी रचना लिख डाली हैं । मेरी कामना है कि यह प्रस्फुटन बनी रहे और हमारी हिन्दी दिनानुदिन समृद्ध होती रहे। हलचल के मंच को नमन करते हुए आपका भी अभिनंदन करता हूँ ।

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    1. हार्दिक आभार आदरणीय

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  6. वाह !बहुत ही हृदय स्पर्शी सृजन प्रिय सखी
    सादर

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  7. वाह! सखी ,बहुत उम्दा सृजन ।

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  8. हार्दिक आभार आदरणीय

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