चीखती धरणी पुकारे
जाग मानव सो रहा है।
काल को घर में बुलाने
बीज जहरी बो रहा है।
मेघ भी आँसू बहाते
देख वसुधा की तड़प को।
मौत से साँसें लड़े जब
रोकते कैसे झड़प को।
देख के कालाबजारी
मौन अम्बर रो रहा है।
सूखती है आस बैठी
आग आँसू की जलाती।
ढूँढती फिर राख सपने
पीर अंतस जो गलाती।
इस महामारी जळी से
आज बाणा रो रहा है।
चंचला तड़की कहीं पे
छूटता शृंगार जैसे।
माँग का सिंदूर फीका
बाँधती वट डोर कैसे।
आस सपनों की बँधी जो
टूट धागा खो रहा है।
*अनुराधा चौहान'सुधी'स्वरचित ✍️*
चित्र गूगल से साभार
वाह,सुंदर रचना,आज के परिदृष्य का यथार्थवादी चित्रण ।
ReplyDeleteहार्दिक आभार जिज्ञासा जी
Deleteकोरोना काल की दारूण परिस्थितियों पर मर्मस्पर्शी सृजन ।
ReplyDeleteहार्दिक आभार मीना जी
Deleteमेघ भी आँसू बहाते
ReplyDeleteदेख वसुधा की तड़प को।
मौत से साँसें लड़े जब
रोकते कैसे झड़प को।
देख के कालाबजारी
मौन अम्बर रो रहा है।
यथार्थ चित्रण .... मन के आक्रोश को शब्द मिले .
हार्दिक आभार आदरणीया
Deleteआपकी लिखी रचना सोमवार 14 जून 2021 को साझा की गई है ,
ReplyDeleteपांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।संगीता स्वरूप
माँग का सिंदूर फीका
ReplyDeleteबाँधती वट डोर कैसे।
आस सपनों की बँधी जो
टूट धागा खो रहा है।
–मार्मिक रचना..
हार्दिक आभार आदरणीया दी।
Deleteबहुत सुंदर रचना आदरणीय !!
ReplyDeleteसादर
हार्दिक आभार आदरणीय
Deleteवाह!सखी ,सुंदर भावाभिव्यक्ति ।
ReplyDeleteमर्मस्पर्शी अभिव्यक्ति प्रिय अनुराधा जी।
ReplyDelete-----
विषम परिस्थितियों के जाल है
घिर रहा तूफां भँवर में पाल है
ठहर जा,धैर्य रख ले कुछ प्रहर
आ जुटाए चाँदनी से कुछ उजाले
भोर की दस्तक से रात बेहाल है।
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बहुत ही सुन्दर भावपूर्ण रचना
ReplyDeleteआस सपनों की बँधी जो
ReplyDeleteटूट धागा खो रहा है।....बहुत खूब
हार्दिक आभार आदरणीया
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