कुण्डी मन के द्वार लगाकर
सींच रहे घर का आँगन
प्रेम नगरिया सूनी होती
राह निहारे मन आनन।
भीत टटोले सबके मुखड़े
मौन लगाता है जाले।
कभी सजी थी खुशियाँ जिसमें
सूने दिखते वो आले।
अम्बर देख बहाए आँसू
खिला धरा पे पत्थर वन।
प्रेम नगरिया……
झाँक घरों में चंदा पूछे
कहाँ छुपी है मानवता।
क्रोध दामिनी का फिर फूटा
देख आज की दानवता।
जीवन काँप रहा है थर-थर
छोड़ प्राण भी भागे तन।
प्रेम नगरिया……
कंक्रीटों के बाग लगाकर
ढूँढ रहे सब हरियाली।
विष पीकर अब मीठे होते
फल लटके तरु की डाली।
कण्टक के तरुवर को सींचा
पुष्प महकता कब उपवन।
प्रेम नगरिया……
*अनुराधा चौहान'सुधी'स्वरचित*
हार्दिक आभार आदरणीय
ReplyDeleteकुण्डी मन के द्वार लगाकर
ReplyDeleteसींच रहे घर का आँगन
प्रेम नगरिया सूनी होती
राह निहारे मन आनन।
वाह!!
सादर
हार्दिक आभार आदरणीय
Deleteबहुत सुन्दर ...
ReplyDeleteसच है मन रीता हो, बन्द हो किवाड़ तो सूनापन रह जाता है ... आत्मसात सबको करना जरूरी है ...
हार्दिक आभार आदरणीय
Deleteबहुत सुन्दर वर्णन
ReplyDeleteहार्दिक आभार प्रीति जी।
Deleteकंक्रीटों के बाग लगाकर
ReplyDeleteढूँढ रहे सब हरियाली।
बिलकुल सत्य कहा सखी,सुंदर सृजन
झाँक घरों में चंदा पूछे
ReplyDeleteकहाँ छुपी है मानवता।
क्रोध दामिनी का फिर फूटा
देख आज की दानवता।
जीवन काँप रहा है थर-थर
छोड़ प्राण भी भागे तन।
प्रेम नगरिया……
बहुत सुन्दर....
हार्दिक आभार विकास जी।
Deleteजी नमस्ते ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (२७-0६-२०२१) को
'सुनो चाँदनी की धुन'(चर्चा अंक- ४१०८ ) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
हार्दिक आभार आदरणीय
Deleteकंक्रीटों के बाग लगाकर
ReplyDeleteढूँढ रहे सब हरियाली।
विष पीकर अब मीठे होते
फल लटके तरु की डाली।
बहुत सुंदर रचना 🙏
हार्दिक आभार आ. शरद जी।
Deleteकुण्डी मन के द्वार लगाकर
ReplyDeleteसींच रहे घर का आँगन
प्रेम नगरिया सूनी होती
राह निहारे मन आनन।
बहुत सुन्दर रचना
हार्दिक आभार आदरणीया
Deleteरचना तो सुन्दर है ही परन्रतु चना के साथ आपने जो फोटो लगाई है उसने मन मोह लिया जैसे बन्दिशों के अंदर से फूटते आजादी के अंकुर 😊
ReplyDeleteजी आभार
Delete*परन्तु रचना
ReplyDeleteबहुत सुंदर गहन भाव लिए अभिनव सृजन सखी।
ReplyDeleteअप्रतिम।
हार्दिक आभार सखी।
Deleteबहुत ही सुंदर सृजन।
ReplyDeleteसादर
हार्दिक आभार सखी।
Deleteकंक्रीटों के बाग लगाकर
ReplyDeleteढूँढ रहे सब हरियाली।
विष पीकर अब मीठे होते
फल लटके तरु की डाली।
कण्टक के तरुवर को सींचा
पुष्प महकता कब उपवन
वाह!!!
बहुत ही सुन्दर सामयिक नवगीत।
हार्दिक आभार सखी।
Deleteगहन भाव से रची सुंदर रचना ।
ReplyDeleteहार्दिक आभार आदरणीया।
Delete