Monday, May 9, 2022

कोलाहल हृदय का


 स्वप्न सारे टूट बिखरे
ठेव मन पर जोर लागी‌।
रात भी ढलती रही फिर  
बैठ पलकों पे अभागी।

आस के पग डगमगाते
थक कर न रुक जाए कहीं ।
थाम ले छड़ी चेतना की
कोई शिखर मुश्किल नहीं।
देख कोलाहल हृदय का
हो रहा मन वीतरागी।
स्वप्न सारे....

काल की गति तेज होती
जो रुका वो हारता है।
लक्ष्य को आलस की बेदी
वो हमेशा वारता है।
सत्य आँखें खोलता जब
फिर भ्रमित सी पीर जागी।
स्वप्न सारे....

ज्योति जीवन की बुझाने
तम घनेरा हँस रहा है।
कष्ट यह निर्झर बना फिर
नयन से चुपके बहा है।
साँस अटकी देखकर तब
नींद पलकें छोड़ भागी।
स्वप्न सारे....
©® अनुराधा चौहान'सुधी'स्वरचित
चित्र गूगल से साभार

9 comments:

  1. हार्दिक आभार आदरणीया।

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  2. काल की गति तेज होती
    जो रुका वो हारता है।
    लक्ष्य को आलस की बेदी
    वो हमेशा वारता है।
    -------------------
    बहुत सुंदर और सही बात लिखा है आपना। सार्थक रचना के लिए आपको शुभकामनाएँ।

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    1. आपका हार्दिक आभार।

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  3. आस के पग डगमगाते
    थक कर न रुक जाए कहीं ।
    थाम ले छड़ी चेतना की
    कोई शिखर मुश्किल नहीं।
    हृदयस्पर्शी और अप्रतिम सृजन अनुराधा जी !

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  4. सच कष्टमय आँखों में नींद कैसी
    बहुत अच्छी मर्मस्पर्शी प्रस्तुति

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    1. हार्दिक आभार आदरणीया

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  5. स्वप्न सारे टूट बिखरे
    ठेव मन पर जोर लागी‌।
    रात भी ढलती रही फिर
    बैठ पलकों पे अभागी।
    भावपूर्ण और मन को छूने वाली रचना प्रिय अनुराधा जी।

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    1. हार्दिक आभार सखी।

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