रिश्तों से लदा हुआ
एक वृक्ष था खड़ा
प्रेम की धूप से था
दिन पर दिन फल रहा
अपनत्व के भाव से
हर कोई था सींच रहा
रिश्तों से लदा हुआ
एक वृक्ष था खड़ा
बह चली अचानक
नफरत की आँधियाँ
आँधियों के जोर से
हर रिश्ता उड़ चला
वृक्ष था हरा भरा
ठूंठ बनकर रह गया
मतलब के मौसम में
रिश्ते सभी बिखर गए
शाख़ से जुदा हो कर
वो न जानें किधर गए
प्रेम की धूप भी अब
बदले की आग बन गई
अपनत्व का भाव भी
अब जुदा होने लगा
वृक्ष था हरा भरा
ठूंठ बनकर रह गया
***अनुराधा चौहान***
बिल्कुल सही और बढ़िया कविता
ReplyDeleteधन्यवाद लकी जी
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ReplyDeleteबहुत सुन्दर भावों को शब्दों में समेट कर रोचक शैली में प्रस्तुत करने का आपका ये अंदाज बहुत अच्छा लगा,
ReplyDeleteसादर आभार आदरणीय
Deleteधन्यवाद अभिलाषा जी
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