Saturday, July 7, 2018

विचलित मन

(चित्र गूगल से साभार)
आज विचलित हो उठा मन
देख कर कुछ ऐसा मंजर
यह कैसी लहर चली है
बुढ़ापे में अकेले छोड़ देते हैं
यह कैसी कलयुगी संतानें हैं
निर्दयी निष्ठुर भावना से परे
नहीं कोई दया
नहीं कोई करूणा
जिन्हें किसी का डर नहीं
असहनीय कष्ट देते
अपने जनक को
भूल गए उनके त्याग को
आज विचलित हो उठा मन
बढ़ती उम्र की लाचारी
देख संतान की कठोरता
हो जाते मजबूर
भूल गए ममता उनकी
भूल गए वो कष्ट
जो उन्हें सुखी करने के लिए
मां बाप ने झेले थे
बेदखल कर देते घर से
तोड़ देते हैं स्वप्न
जो उन्होंने संजोए थे
मन्नतों से पाया था जिसे
खरोंच जरा भी आती थी
तो फूट फूट कर रोते थे
आज उन्हीं बच्चों के दिए दर्द से
फिर फूट फूट कर रोते हैं
उफ ये कैसी निर्दयी संतानें हैं
देख के उनका यह रूप
आज विचलित हो उठा मन
*** अनुराधा चौहान***



12 comments:

  1. मार्मिक रचना सत्य को प्रकट करती है

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    1. धन्यवाद अभिलाषा जी

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  2. ये एक कड़वी हक़ीक़त बनती जा रही है आज की ...
    संवेदनहीनता बढ़ती जा रही है ... रिश्तों की अहमियत ख़त्म ...
    सच की रचना ...

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    1. सादर आभार आदरणीय सत्य कहा आपने

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  3. हकीकत बयान करती सार्थक रचना
    कडवी है पर हकीकत है जिसे बदलना जरूरी है

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    1. जी सही कहा आपने नीतू जी सादर आभार

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  4. निमंत्रण विशेष : हम चाहते हैं आदरणीय रोली अभिलाषा जी को उनके प्रथम पुस्तक ''बदलते रिश्तों का समीकरण'' के प्रकाशन हेतु आपसभी लोकतंत्र संवाद मंच पर 'सोमवार' ०९ जुलाई २०१८ को अपने आगमन के साथ उन्हें प्रोत्साहन व स्नेह प्रदान करें। सादर 'एकलव्य' https://loktantrasanvad.blogspot.in/

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  5. बेहतरीन अभिव्यक्ति

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    1. जी सही कहा रेवा जी सादर आभार

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