सुनो...
तुम सांझ ढले
जब भी आना
थोड़ी खुशियां
साथ ले आना
छोड़ आना अहम
किसी सड़क के किनारे
मैं भी आज
जला दूंगी
अपना अहम
चूल्हे की आग में
सुनो....
तुम सांझ ढले
जब भी आना
थोड़ी मुस्कुराहट
साथ ले आना
मैं भी आज
सजा लेती हूं
थोड़ी मुस्कुराहट
अपने होंठों पर
भुला सारे गिले-शिकवे
फिर शुरू करते हैं
एक नई जिंदगी
सुनो....
तुम सांझ ढले
जब भी आना
थोड़ा प्यार भी
साथ ले आना
मैं भी आज
प्यार जगा लेती हूं
पहले वाला
भुला सारे झगड़े
सारे अहम
जीते हैं जिंदगी
वही पहले वाली
***अनुराधा चौहान***
बहुत सुंदर सोच ,चलै फिर से शुरू करें दास्ताँ नई ।
ReplyDeleteसुंदर रचना ।
धन्यवाद सखी
Deleteवाह ! किसी प्रिय के लिए भावपूर्ण उद्बोधन !! कितनी सरल भावनाओं में पूर्णता चाहती हैं एक नारी | सस्नेह --
ReplyDeleteवाह!प्रिय सखी ,बहुत सुंदर !!
ReplyDeleteबहुत बहुत धन्यवाद शुभा जी
Deleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (08-08-2018) को "सावन का सुहाना मौसम" (चर्चा अंक-3057) पर भी होगी।
ReplyDelete--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
राधा तिवारी
मेरी रचना को साझा करने के लिए आपका बहुत बहुत धन्यवाद राधा जी
Deleteसुंदर भावनाओं से सजी अभिव्यक्ति
ReplyDeleteधन्यवाद मीना जी
Deleteअनुपम सृजन
ReplyDeleteधन्यवाद आदरणीय लोकेश जी
Deleteवाह
ReplyDeleteधन्यवाद रेवा जी
Deleteबहुत ही प्यारी रचना
ReplyDeleteधन्यवाद शकुंतला जी
Delete