Wednesday, August 8, 2018

सुनो धरा कुछ बोलती

सुनो धरा कुछ बोलती
मनुज के कान खोलती
सँभल-सँभल चलो जरा
विनाश पथ ये डोलती

पहाड़ तुम जो काटते
नदी के तट को पाटते
मकां जो तुम बना रहे
अपनी चिता सजा रहे

यह इमारतें बड़ी बड़ी
शुद्ध हवाएं रोक रही
ये गाड़ियाँ बड़ी-बड़ी
जहर साँस है घोलती

जो पेड़ तुम हो काटते
हो संतुलन बिगाड़ते
जल धरा का सूख रहा
फिर भी नहीं हो मानते

निकल नालों से गंदगी
नदियों में जा मिल रही
आज वो दलदल बनी
विनाश गाथा कह रही

संभल चलो मनुज जरा
दुःख धरा का है बढ़ा
क्रोध का ये देख रूप
समस्त विश्व डर उठा

सुनो धरा कुछ बोलती
मनुज के कान खोलती
सँभल-सँभल चलो जरा
विनाश पथ ये डोलती
*अनुराधा चौहान स्वरचित ✍️*

15 comments:

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    1. धन्यवाद आदरणीय लोकेश जी

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  2. सच है कि जागना होगा अभी नहीं चेते तो कब ... जब सब बर्बाद हो जाएगा तब ... अच्छी रचना

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    1. धन्यवाद आदरणीय दिगंबर जी

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  3. संदेश देती, मानव को चेताती हुई सुंदर रचना

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  4. बहुत सुंदर पंक्तियाँ

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    1. बहुत बहुत धन्यवाद आदरणीय

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  5. इक जलजला तब आयेगा
    यह विनाश तुम रोक लो
    सब तबाह हो जाएगा
    संभल जाओ संभल जाओ.... फिर भी हम सब उसे अनसुना कर देते हैं ... सुंदर कविता

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    1. बहुत बहुत धन्यवाद जी

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  6. शानदार अभिव्यक्ति

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    1. धन्यवाद प्रतिभा जी

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  7. सच...अब भी नहीं तो कब ....उम्दा

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  8. सार्थक सन्देश देती रचना

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