Thursday, August 8, 2019

शर्त

बिना किसी शर्त के
वो चल दी थी 
जीवनसाथी का थाम के हाथ
करती रही मनमानियाँ पूरी
चाहतों को मारकर
ख्व़ाबों को रौंदकर
ऊपर से खिली-खिली
अंदर से मुरझाई-सी
जोड़ती गई ज़िंदगियाँ
अपनी ज़िंदगी से
पालती-पोषती
रिश्तों को संभालती
सरक रही थी ज़िंदगी
बढ़ती उम्र ने दस्तक दी
बुढ़ापे की दहलीज पर
आकर खड़ी
जिस संग नाता जन्मों का
बाँध के चली थी
उम्र की दहलीज पर
टूटी वो कड़ी थी
जीवनसाथी ने छोड़ा साथ 
जीवन हुआ नर्क
उसे देने दो वक़्त की रोटी
बच्चों भी लगाने लगे शर्त
***अनुराधा चौहान***

चित्र गूगल से साभार


11 comments:

  1. यथार्थ
    मार्मिक
    अप्रतिम रचना
    सादर 🙏

    ReplyDelete
    Replies
    1. हार्दिक आभार रवीन्द्र जी

      Delete
  2. हृदय स्पर्शी रचना सखी ।

    ReplyDelete
  3. अति उत्तम सखी।

    ReplyDelete
  4. यथार्थ इंगित करती रचना।

    ReplyDelete
  5. बहुत सुन्दर मार्मिक.... यथार्थ बयां करती रचना..

    ReplyDelete
    Replies
    1. हार्दिक आभार प्रिय सुधा जी

      Delete