सोच रही है आज धरा भी
कैसा कलयुग आया है।
कल-तक शोर मचाता मानव
कैसे अब घबराया है।
गली-गली सुनसान पड़ी हैं
किलकारी भी ताले में।
काम-काज सब बंद हो गए
दफ्तर घिरते जाले में।
करनी का फल भुगत रहे सब
जो दिया वही पाया है।
कल-तक शोर मचाता मानव
कैसे अब घबराया है।
भाईचारा भूल गए सब
अपना सुख भरपूर रहे।
मात-पिता को किया अकेला
धन के मद में चूर हुए।
आँखों में लालच का परदा
दिखती केवल माया है।
कल-तक शोर मचाता मानव
कैसे अब घबराया है।
भूल गए थे माँ का खाना,
स्वाद दिखे बस ढाबे में
भाग-दौड़ में भूले जीवन,
प्यार कहाँ झूठे दावे में।
दिखे नहीं अब ठौर कहीं भी,
पड़ी काल की छाया है।
कल-तक शोर मचाता मानव
कैसे अब घबराया है।
सोच रही है आज धरा भी
कैसा कलयुग आया है।
कल-तक शोर मचाता मानव
कैसे अब घबराया है।
***अनुराधा चौहान'सुधी'***
चित्र गूगल से साभार
वर्तमान समय का इससे बेहतर चित्रण नहीं हो सकता
ReplyDeleteहार्दिक आभार आदरणीय
Deleteवैश्विक महामारी के चलते समूचा मानव जगत घबराहट में है . वर्तमान परिदृश्य का सटीक चित्रण .
ReplyDeleteहार्दिक आभार सखी
Deleteजी नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा सोमवार (13-04-2020) को 'नभ डेरा कोजागर का' (चर्चा अंक 3670) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
*****
रवीन्द्र सिंह यादव
हार्दिक आभार आदरणीय
Deleteसामायिक विषय पर सार्थक सृजन ।
ReplyDeleteसखी सुंदर नवगीत।
हार्दिक आभार सखी
Deleteबहुत ही सुन्दर समसामयिक हृदयस्पर्शी नवगीत।
ReplyDeleteहार्दिक आभार सखी
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