Saturday, August 1, 2020

अंत कलह कर संचारित

तृष्णा कण-कण वास किए है
अंत कलह कर संचारित।
काम वासना सिर चढ़ बैठी
ज्ञान चक्षु को कर वारित।

धरती का सब रूप बिगाड़े 
लूट रहे तरु आभूषण।
हरियाली की चादर हरते
आज बने सब खर-दूषण।
काल ग्रास बनने को आतुर
अंत हुआ अब आधारित।
तृष्णा कण-कण वास किए है
अंत कलह कर संचारित।

बारूदों के ढेर खड़े कर 
सारी सीमा पार हुई।
कंक्रीटों का जाल बिछाएं
लिए लालसा हाथ सुई।
आँख बाँध के पट्टी बैठे
अपराधी कर विस्तारित।
तृष्णा कण-कण वास किए है
अंत कलह कर संचारित।

हौले-हौले झटके देती
समझ कहाँ भूला मानव।
लोभ उफनता लावा बनके
ताप बढ़ाता ये दानव।
वन तपस्विनी धरणी तपती
सूर्य मंत्र कर उच्चारित।
तृष्णा कण-कण वास किए है
अंत कलह कर संचारित।

***अनुराधा चौहान'सुधी'***
चित्र गूगल से साभार

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