शूल चुभे शब्दों के जहरी
त्रस्त हृदय क्रंदन करता।
आस छुपाए अपना मुखड़ा
लोभ प्रेम मर्दन करता।
नोंच रहे कोपल जो खिलती
देख काँपती है धरती।
पीर बढ़ी अम्बर की ऐसी
मेघ बनी बूँदे झरती।
टूट रहा नीरव रातों में
स्वप्न कहीं नर्तन करता।
आस छुपाए………
साँझ समेटे अपनी चादर
ढाँक रही ढलती काया।
घोर निशा से मानव डरता
काल गढ़े ऐसी माया।
गिद्ध बने निर्बल को नोंचे
कौन कहाँ चिंतन करता।
आस छुपाए………
धूप ओढ़ के बचपन सोता
देख हँसे पग के छाले।
भूख धरा का आँचल ढूँढें
रीत गए घर के आले।
भाव बढ़ाती रोटी अपना
बोझ तले निर्धन मरता।
आस छुपाए………
*अनुराधा चौहान'सुधी'स्वरचित*
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" में बुधवार 7 जुलाई 2021 को साझा की गयी है.............. पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
हार्दिक आभार आदरणीया
Deleteसाँझ समेटे अपनी चादर
ReplyDeleteढाँक रही ढलती काया।
घोर निशा से मानव डरता
काल गढ़े ऐसी माया।
गिद्ध बने निर्बल को नोंचे
कौन कहाँ चिंतन करता।
मन का क्रंदन ज़बरदस्त लिखा है ।
हार्दिक आभार आदरणीया।
Deleteवाह!सखी ,बेहतरीन सृजन ।
ReplyDeleteधूप ओढ़ के बचपन सोता
ReplyDeleteदेख हँसे पग के छाले।
भूख धरा का आँचल ढूँढें
रीत गए घर के आले।
भाव बढ़ाती रोटी अपना
बोझ तले निर्धन मरता।
समाज की दयनीय स्थिति को उजागर करती सशक्त रचना।
हार्दिक आभार सखी
Deleteगहन भावों से पिरोयी पंक्तियाँ।
ReplyDeleteहार्दिक आभार आदरणीय
Deleteबेहतरीन सृजन चिंतन करने योग्य संदेश
ReplyDeleteजी नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना शुक्रवार ३१ दिसंबर २०२१ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
हार्दिक आभार श्वेता जी।
Deleteशुभकामनाएं..
ReplyDeleteसादर नमन
हर वर्ष आशा रहती है कि क्रंदन कुछ कम हो ।
ReplyDeleteनव वर्ष की शुभकामनाएँ
हार्दिक आभार आदरणीया। आपको भी नववर्ष की हार्दिक शुभकामनाएं।
Deleteधूप ओढ़ के बचपन सोता
ReplyDeleteदेख हँसे पग के छाले।
भूख धरा का आँचल ढूँढें
रीत गए घर के आले।
भाव बढ़ाती रोटी अपना
बोझ तले निर्धन मरता।
उस कटु सत्य का बहुत ही हृदयस्पर्शी शब्दचित्रण
लाजवाब नवगीत
वाह!!!
हार्दिक आभार सखी।
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