मानव बना विनाशक बरती न सावधानी।
यह आपदा बनी अब लीले नदी निशानी॥
सूखे तड़ाग सारे धरती चटक रही है।
यह क्रोध भाव कैसा क्यों बैर नीति ठानी॥
तपती वसुंधरा भी अम्बर निहारती है।
बरसो जरा झमाझम आये घड़ी पुरानी॥
नव पौध रोप कर हम धरती बचा सकेंगे।
जीवन फले धरा पर यह रीत भी निभानी॥
नयना निहारते है प्यासा उड़े पपीहा।
छाए घना अँधेरा बहती पवन सुहानी॥
शीतल समीर छेड़े संगीत जब धरा पर।
घिरती घटा घनेरी अंतस समेट पानी॥
मन झूमते सुधी फिर मुख से हटे निराशा।
बूँदे गिरे टपाटप कहती नई कहानी॥
अनुराधा चौहान'सुधी'✍️
चित्र गूगल से साभार
मानव बना विनाशक बरती न सावधानी।
ReplyDeleteयह आपदा बनी अब लीले नदी निशानी॥
सूखे तड़ाग सारे धरती चटक रही है।
यह क्रोध भाव कैसा क्यों बैर नीति ठानी॥
अब पर्यावरण से बैर तो कर लिया लेकिन सुधार अभी भी नहीं । सुंदर रचना
हार्दिक आभार आदरणीया।
Deleteजी नमस्ते ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार(६-०६-२०२२ ) को
'समय, तपिश और यह दिवस'(चर्चा अंक- ४४५३) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
जी हार्दिक आभार सखी
Deleteवाह वाह, सामयिक
ReplyDeleteहार्दिक आभार आदरणीय।
Deleteपर्यावरण का संरक्षण ही आज की मांग है,सारगर्भित रचना ❤️
ReplyDeleteहार्दिक आभार अनुपमा जी।
Deleteपर्यावरण सरंक्षण के प्रति जागरूक करती प्रभावशाली रचना
ReplyDeleteहार्दिक आभार अनीता जी।
Deleteअर्थपूर्ण और सुंदर सृजन
ReplyDeleteहार्दिक आभार आदरणीय।
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