तू कैसी अबला नारी है
खुद को पहचान नहीं पाती
सूर्य किरण सा तेज़ तुझमें
हैं शीतलता चाँदनी की
माँ बहन पत्नी और बेटी
कितने रूपों को तू जीती
जिस घर में है तू जाती
उसी परिवेश में ढल जाती
खुद की कोई पहचान नहीं
दूजे की पहचान पर जीती
तब भी उफ़ न करती
अपने कर्त्तव्य निभाती
कभी दहेज तो कभी तेजाब
सदा निर्दोष जला करती
शारीरिक वेदना सहती
टूटती गिरती फ़िर खड़ी होती
है सहनशीलता इतनी तुझमें
फिर क्यों खुद को कमजोर है कहती
नारी तू अबला नहीं
बस खुद को पहचान नहीं पाती
तू कोमल सुकुमारी है
तू ही काली कल्याणी है
है रिश्तों की मर्यादा तुझमें
तू सम्मान की अधिकारी है
तू कैसी अबला नारी है
खुद को पहचान नहीं पाती
***अनुराधा चौहान***
खुद को पहचान नहीं पाती
सूर्य किरण सा तेज़ तुझमें
हैं शीतलता चाँदनी की
माँ बहन पत्नी और बेटी
कितने रूपों को तू जीती
जिस घर में है तू जाती
उसी परिवेश में ढल जाती
खुद की कोई पहचान नहीं
दूजे की पहचान पर जीती
तब भी उफ़ न करती
अपने कर्त्तव्य निभाती
कभी दहेज तो कभी तेजाब
सदा निर्दोष जला करती
शारीरिक वेदना सहती
टूटती गिरती फ़िर खड़ी होती
है सहनशीलता इतनी तुझमें
फिर क्यों खुद को कमजोर है कहती
नारी तू अबला नहीं
बस खुद को पहचान नहीं पाती
तू कोमल सुकुमारी है
तू ही काली कल्याणी है
है रिश्तों की मर्यादा तुझमें
तू सम्मान की अधिकारी है
तू कैसी अबला नारी है
खुद को पहचान नहीं पाती
***अनुराधा चौहान***
निःशब्द कर दिया आप ने बहुत अच्छा लिखा... लाजवाब।
ReplyDeleteधन्यवाद नीतू जी
ReplyDeleteबेहतरीन ...जाग्रत करते भाव
ReplyDeleteधन्यवाद इंदिरा जी
Deleteवाह बहुत खूब !!
ReplyDeleteतूं ही कली कल्याणीं है…..
तूं सम्मान की अधिकारी है।
बस खुद को पहचान ले तूं कहां अबला नारी है.. ..
अप्रतिम भाव।
नारी अबला कहाँ है ...
ReplyDeleteसबसे मज़बूत ... परिवार का बोझ आज नारी ही उठाती है ... स्वयं को पहचानना होगा उसे ...
सुंदर रचना है ...
बहुत बहुत धन्यवाद आदरणीय
Deleteबेहतरीन
ReplyDeleteलाजवाब
बहुत खूब
आपका बहुत बहुत धन्यवाद लोकेश जी
Deleteबहुत सुन्दर रचना सखी
ReplyDeleteसादर
सहृदय आभार सखी
Delete