Wednesday, July 25, 2018

तू कैसी अबला नारी है

तू कैसी अबला नारी है
खुद को पहचान नहीं पाती
सूर्य किरण सा तेज़ तुझमें
हैं शीतलता चाँदनी की
माँ बहन पत्नी और बेटी
कितने रूपों को तू जीती
जिस घर में है तू जाती
उसी परिवेश में ढल जाती
खुद की कोई पहचान नहीं
दूजे की पहचान पर जीती
तब भी उफ़ न करती
अपने कर्त्तव्य निभाती
कभी दहेज तो कभी तेजाब
सदा निर्दोष जला करती
शारीरिक वेदना सहती
टूटती गिरती फ़िर खड़ी होती
है सहनशीलता इतनी तुझमें
फिर क्यों खुद को कमजोर है कहती
नारी तू अबला नहीं
बस खुद को पहचान नहीं पाती
तू कोमल सुकुमारी है
तू ही काली कल्याणी है
है रिश्तों की मर्यादा तुझमें
तू सम्मान की अधिकारी है
तू कैसी अबला नारी है
खुद को पहचान नहीं पाती
***अनुराधा चौहान***

11 comments:

  1. निःशब्द कर दिया आप ने बहुत अच्छा लिखा... लाजवाब।

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  2. धन्यवाद नीतू जी

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  3. बेहतरीन ...जाग्रत करते भाव

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  4. वाह बहुत खूब !!
    तूं ही कली कल्याणीं है…..
    तूं सम्मान की अधिकारी है।
    बस खुद को पहचान ले तूं कहां अबला नारी है.. ..
    अप्रतिम भाव।

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  5. नारी अबला कहाँ है ...
    सबसे मज़बूत ... परिवार का बोझ आज नारी ही उठाती है ... स्वयं को पहचानना होगा उसे ...
    सुंदर रचना है ...

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    1. बहुत बहुत धन्यवाद आदरणीय

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  6. बेहतरीन
    लाजवाब
    बहुत खूब

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    1. आपका बहुत बहुत धन्यवाद लोकेश जी

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  7. बहुत सुन्दर रचना सखी
    सादर

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