मैं दूसरों के सपनों को
साकार करती हूंँ
गरीब हूं साहिब
तो क्या हुआ
मैं भी हर रात
सपने बुनती हूंँ
फिर सुबह तोड़ती हूंँ
पत्थरों की तरह
डाल आतीं हूंँ
किसी सड़क पर
उसके निर्माण के लिए
यह सड़क नहीं साहिब
यह गरीब के सपने हैं
जो रात भर संँजोते है
सुबह पूरे करते हैं
अपने बच्चों के लिए
गरीब हूंँ तो साहिब
तो क्या हुआ
मैं भी सपने बुनती हूं
फिर सुबह ढ़ोती हूंँ इन्हें
सिर पर ईंटों की तरह
तब यह दीवारों में
जाकर चुनती है
तब बनता है आपका
सपनों का घर
वह घर नहीं साहिब
सपने हैं गरीब के
जो वह पूरे करते हैं
तब कहीं जाकर
भरते हैं पेट बच्चों का
तब पाते है कपड़े
तन को ढकने के लिए
गरीब हूंँ साहिब
तो क्या हुआ
मैं भी सपने बुनती हूंँ
और निर्माण करती हूंँ
औरों के सपनों का
***अनुराधा चौहान***
आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" रविवार 05 अगस्त 2018 को साझा की गई है......... http://halchalwith5links.blogspot.in/ पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteजी अवश्य आदरणीय आपका बहुत बहुत धन्यवाद
Deleteमर्मस्पर्शी रचना यथार्थ दर्शन करवाती ।
ReplyDeleteअप्रतिम।
बहुत बहुत आभार सखी 🙏
Deleteबेहद संवेदनशील रचना..भावों का तरल.प्रवाह हो रहा है अनुराधा जी।
ReplyDeleteधन्यवाद श्वेता जी आपकी सार्थक प्रतिक्रिया पाकर मैं धन्य हो गई
Deleteसुन्दर
ReplyDeleteधन्यवाद आदरणीय 🙏
Deleteधन्यवाद आदरणीय
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