तेरी बातों का भ्रम छूटा
दिल मेरा टूटा मगर
तेरे वादों का भ्रम टूटा
छाई थी तेरे प्यार की धुंध
अब छंटने लगी है
तन्हाईयां बन गई साथी
रुसवाईयां डसने लगी हैं
सोचती हूं क्यों तेरे
वादों पर यकीन करके चली
भूल जाना चाहती हूं
मैं तो अब तेरी गली
मुकद्दर में शायद मेरे
ग़म बेतहाशा लिखे थे
इसलिए आज हम तुम
अजनबी बनकर चले थे
यह हसीं फिजाएं कभी थी
गवाह हमारी खुशियों की
आज ग़म के दायरे में
यह सिमट कर रह गई
पेड़ों से गिरते पत्ते
कभी लगते थे फूलों से
यह भी चुभने लगे हैं
आज मेरे बदन को शूलों से
सोचती हूं यह शाम ढले
एक नई सहर हो जाए
भूल जाऊं मैं तुम्हें
तो यह जिंदगी बसर हो जाए
***अनुराधा चौहान***
भ्रम टूटा तो आँखें खुल जाती हैं । रोचक व सुरभित रचना।
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार आदरणीय
Deleteब्लॉग बुलेटिन की दिनांक 12/01/2019 की बुलेटिन, " १५६ वीं जयंती पर स्वामी विवेकानन्द जी को नमन “ , में आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार शिवम् जी
Deleteभ्रम टूटता है तो दुःख तो होता है लेकिन उस टूटने के बाद ज़िन्दगी एक नया और सुन्दर रुख लेती है। नई उम्मीद जागृत होती है। सुन्दर कृति।
ReplyDeleteधन्यवाद विकास जी
Deleteबहुत ही उम्दा रचना
ReplyDeleteधन्यवाद निधि जी
Deleteवाह बहुत उम्दा रचना सखी ।
ReplyDeleteबेहद आभार सखी
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