Wednesday, March 13, 2019

विरह वेदना

छूकर मुझको जब चलती हवाएं
तन-मन में मेरे आग-सी लगाएं
बीत रहा है बसंत तू नहीं है पास
बैरी फागुन मुझे तेरी याद दिलाए

बुझा-सा चाँद चाँदनी भी लगे उदास
महक तेरे अहसास की हरपल है पास
यादों में तेरी मेरी भीगीं हैं अँखियाँ 
बीता रहा फागुन सूनी हैं रतियाँ

यह रात के अंधेरे पत्तों की सरसराहट
लगता है तुम हो या तेरे आने की आहट
बहार बीतने लगी मधुमास भी जा रहा
फागुन का रंग मेरे मन को तड़पा रहा

बैचेन हूँ मैं बहुत तन्हाई सही न जाए
विरह की अग्नि मेरा तन-मन जलाए
बैरन निंदिया आँखों से बहुत दूर है
ज़िंदगी मेरी तन्हाईयों से भरपूर है

पलाश के फूलों की आग भी बुझने लगी
सर्द हवाएं गर्म हो विरह में जलने लगी
मेरे मन के आँगन से पतझड़ गया नहीं
बिन तेरे बसंत में दिखता कोई रंग नहीं

तुम गए साथ में रंग सारे ले गए
बेबस लाचार-से हम तड़प के रह गए
अब तेरी यादें और तन्हाइयों का साथ है
कैसा अब फागुन कैसी बहार है
***अनुराधा चौहान***

19 comments:

  1. वाह बहुत सुन्दर मन को छूती विरह रचना।
    अप्रतिम।

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  2. सस्नेह आभार रितु जी

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  3. विरहन की तड़प को बाखूबी दर्शाता बहुत ही सुंदर रचना सखी

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  4. बीत रहा है बसंत तू नहीं है पास
    बैरी फागुन मुझे तेरी याद दिलाए
    बहुत खूब...... आदरणीया

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    1. बहुत बहुत आभार आदरणीय

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  5. खूबसूरती के साथ विरह -वेदना का वर्णन किया है आपनें सखी !

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  6. तुम गए साथ में रंग सारे ले गए
    बेबस लाचार-से हम तड़प के रह गए
    अब तेरी यादें और तन्हाइयों का साथ है
    कैसा अब फागुन कैसी बहार है
    दिल को छूती रचना, अनुराधा दी।

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  7. विरहन की तड़प बहुत पसन्द आया
    हमें भी पढवाने के लिये हार्दिक धन्यवाद

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  8. जी नमस्ते,
    आपकी लिखी रचना हमारे सोमवारीय विशेषांक
    १८ मार्च २०१९ के लिए साझा की गयी है
    पांच लिंकों का आनंद पर...
    आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।

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    1. हार्दिक आभार श्वेता जी

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  9. Replies
    1. हार्दिक आभार आदरणीय

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  10. पलाश के फूलों की आग भी बुझने लगी
    सर्द हवाएं गर्म हो विरह में जलने लगी
    मेरे मन के आँगन से पतझड़ गया नहीं
    बिन तेरे बसंत में दिखता कोई रंग नहीं
    विरहाकुल मन की विरहव्यथा...बहुत ही सुन्दर...

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