छूकर मुझको जब चलती हवाएं
तन-मन में मेरे आग-सी लगाएं
बीत रहा है बसंत तू नहीं है पास
बैरी फागुन मुझे तेरी याद दिलाए
बुझा-सा चाँद चाँदनी भी लगे उदास
महक तेरे अहसास की हरपल है पास
यादों में तेरी मेरी भीगीं हैं अँखियाँ
बीता रहा फागुन सूनी हैं रतियाँ
यह रात के अंधेरे पत्तों की सरसराहट
लगता है तुम हो या तेरे आने की आहट
बहार बीतने लगी मधुमास भी जा रहा
फागुन का रंग मेरे मन को तड़पा रहा
बैचेन हूँ मैं बहुत तन्हाई सही न जाए
विरह की अग्नि मेरा तन-मन जलाए
बैरन निंदिया आँखों से बहुत दूर है
ज़िंदगी मेरी तन्हाईयों से भरपूर है
पलाश के फूलों की आग भी बुझने लगी
सर्द हवाएं गर्म हो विरह में जलने लगी
मेरे मन के आँगन से पतझड़ गया नहीं
बिन तेरे बसंत में दिखता कोई रंग नहीं
तुम गए साथ में रंग सारे ले गए
बेबस लाचार-से हम तड़प के रह गए
अब तेरी यादें और तन्हाइयों का साथ है
कैसा अब फागुन कैसी बहार है
***अनुराधा चौहान***
वाह बहुत सुन्दर मन को छूती विरह रचना।
ReplyDeleteअप्रतिम।
सस्नेह आभार सखी
Deleteबहुत सुन्दर
ReplyDeleteसस्नेह आभार रितु जी
ReplyDeleteविरहन की तड़प को बाखूबी दर्शाता बहुत ही सुंदर रचना सखी
ReplyDeleteबहुत सुंदर।
ReplyDeleteबीत रहा है बसंत तू नहीं है पास
ReplyDeleteबैरी फागुन मुझे तेरी याद दिलाए
बहुत खूब...... आदरणीया
बहुत बहुत आभार आदरणीय
Deleteखूबसूरती के साथ विरह -वेदना का वर्णन किया है आपनें सखी !
ReplyDeleteसस्नेह आभार सखी
Deleteतुम गए साथ में रंग सारे ले गए
ReplyDeleteबेबस लाचार-से हम तड़प के रह गए
अब तेरी यादें और तन्हाइयों का साथ है
कैसा अब फागुन कैसी बहार है
दिल को छूती रचना, अनुराधा दी।
धन्यवाद ज्योती जी
Deleteविरहन की तड़प बहुत पसन्द आया
ReplyDeleteहमें भी पढवाने के लिये हार्दिक धन्यवाद
जी नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना हमारे सोमवारीय विशेषांक
१८ मार्च २०१९ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।
हार्दिक आभार श्वेता जी
Deleteसुन्दर
ReplyDeleteहार्दिक आभार आदरणीय
Deleteपलाश के फूलों की आग भी बुझने लगी
ReplyDeleteसर्द हवाएं गर्म हो विरह में जलने लगी
मेरे मन के आँगन से पतझड़ गया नहीं
बिन तेरे बसंत में दिखता कोई रंग नहीं
विरहाकुल मन की विरहव्यथा...बहुत ही सुन्दर...
सहृदय आभार सखी
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