हल्ला गुल्ला शोर मचेगा
अब तो सारी दोपहर मचेगा
मोज मस्ती के दिन हैं आए
स्कूल सारे बंद हैं भाई
कापी किताब से पीछा छूटा
मस्ती से अब जुड़ गया नाता
अब न धूप सताए ना ही अंधेरा
गलियों में हम बच्चों का डेरा
न कोई रोके न कोई टोके
झूमें हम सब मस्ती में होके
अब गोरा हो या काला लल्ला
गलियों में अब मचेगा हल्ला
दिन बचपन के यह बड़े सुहाने
गुजर गए तो फिर नहीं आते
हँसी ठिठोली नाचे गाएं
मासूम लम्हे यह मन को लुभाए
सच्चा मन सच्चा बचपन
न कोई झगड़ा न कोई ग़म
लम्हे ज़िंदगी के सभी हैं अच्छे
बीते दिन जो बचपन के थे सच्चे
छुट्टियों की धूम से खिल उठे मन
बच्चों के सबसे प्रिय हैं यह पल
धूल से सने गंदे बदन
नाचे बेफिक्री से मचाएं हुड़दंग
नहीं चाहिए कोई कीमती खिलौने
खुशियों को हमारी कोई न छीने
आम के पेड़ों पर चढ़कर
ऊधम मचाएंगे हम सारे
छोटी-छोटी अमिया को तोड़कर
खाएंगे लेकर चटकारे
आम के पेड़ों पर चढ़कर
ऊधम मचाएंगे हम सारे
छोटी-छोटी अमिया को तोड़कर
खाएंगे लेकर चटकारे
जिएं जी भर कर दिन छुट्टी के
खेले दिनभर धूल-मिट्टी में
***अनुराधा चौहान***
ब्लॉग बुलेटिन की दिनांक 16/04/2019 की बुलेटिन, " सभी ठग हैं - ब्लॉग बुलेटिन “ , में आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
ReplyDeleteबच्चों की शरारतों के और धमा-चौकड़ी के दिन आ गए. धूप की किसे परवाह होगी? आम कच्चे ही खाए जाएंगे और छोटे-बड़े बिना भेद-भाव सताए जाएंगे. लेकिन करने दो इन्हें हंगामा वरना हंसने-मुस्कुराने में ये भी हमारी तरह कंजूस हो जाएंगे.
ReplyDeleteबालपन का मनोहारी चित्रण । बहुत सुन्दर अनुराधा जी ।
ReplyDeleteजी नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना हमारे सोमवारीय विशेषांक
२२ अप्रैल २०१९ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।
हार्दिक आभार श्वेता जी
Deleteवाह !बहुत सुन्दर सखी
ReplyDeleteसादर
बहुत बहुत आभार सखी
Deleteवाह वो बचपन की मस्ती वो हुगदड़ बहुत खूब सखी बीते दिन याद दिला दीये।
ReplyDeleteआपकी सुंदर प्रतिक्रिया के लिए बहुत बहुत आभार सखी
Deleteदिन बचपन के ...बहुत सुन्दर..
ReplyDeleteसहृदय आभार सखी
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