उजाले का दामन थामकर
निकल पड़ी नयी राह पर
अपनी खुशियों की चाह लिए
कब तक पर्दे में दुःख सहती
खुद को टूटने-बिखरने देती
क्या मिला अब तक उसे
पर्दे के बँधन में बँधकर
रिवाजों से नाता जोड़कर
माँ,बेटी,बहन,पत्नी बनकर
पूरी निष्ठा से जीती रही
कष्ट सहती रही
रिश्तों को स्नेह से सँवारती
हरदम तिरस्कार सहती रही
फिर क्यों जिये डर-डरकर
मन को मारे मर-मरकर
हटा दिया डर का पर्दा
कर गर्व से सिर ऊँचा
हौसलों की उड़ान भरने
नये कीर्तिमान रचने लगी
फिर भी भूली नहीं कर्त्तव्यों को
स्नेह प्रेम से सींचकर
नारी बन ममता की मूरत
रिश्तों को सहेजती है अब भी
***अनुराधा चौहान***
चित्र गूगल से साभार
स्नेह प्रेम से सींचकर
ReplyDeleteनारी बन ममता की मूरत
रिश्तों को सहेजती है अब भी
इससे तो मैं सहमत नहीं हूँ सखी ,अब हमारे तुम्हारे दौड़ वाली बात नहीं रही ,वैसे हमेशा की तरह रचना बेहतरीन हैं
जी आपकी प्रतिक्रिया के लिए आभार सखी
Deleteबहुत बहुत शानदार सखी नारी का आत्म मंथन करती सार्थक रचना ।
ReplyDeleteसस्नेह आभार सखी
Deleteस्त्रियों के लिए अपने त्याग और अपने बलिदान की गाथा गाते हुए आंसू बहाने का समय अब बीत चुका है. अब स्त्री-पुरुष का बराबरी का मुक़ाबला है.
ReplyDeleteसही कहा आपने आभार आदरणीय
Deleteअति सुन्दर रचना
ReplyDeleteसहृदय आभार उर्मिला दी
Deleteबहुत सुन्दर.... हर डर को हटा कर, हर दर्द को भुला कर आगे बढना है..😊
ReplyDeleteधन्यवाद मनीषा जी
Deleteहार्दिक आभार श्वेता जी
ReplyDeleteबेहतरीन सृजन दी जी
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