Wednesday, June 5, 2019

हौसलों की उड़ान

हटा कर अँधेरे का पर्दा
उजाले का दामन थामकर
निकल पड़ी नयी राह पर
अपनी खुशियों की चाह लिए
कब तक पर्दे में दुःख सहती 
खुद को टूटने-बिखरने देती 
क्या मिला अब तक उसे
पर्दे के बँधन में बँधकर
रिवाजों से नाता जोड़कर 
माँ,बेटी,बहन,पत्नी बनकर
पूरी निष्ठा से जीती रही
कष्ट सहती रही
रिश्तों को स्नेह से सँवारती
हरदम तिरस्कार सहती रही
फिर क्यों जिये डर-डरकर
मन को मारे मर-मरकर
हटा दिया डर का पर्दा 
कर गर्व से सिर ऊँचा 
हौसलों की उड़ान भरने
नये कीर्तिमान रचने लगी
फिर भी भूली नहीं कर्त्तव्यों को
स्नेह प्रेम से सींचकर
नारी बन ममता की मूरत
रिश्तों को सहेजती है अब भी
***अनुराधा चौहान***
चित्र गूगल से साभार

12 comments:

  1. स्नेह प्रेम से सींचकर
    नारी बन ममता की मूरत
    रिश्तों को सहेजती है अब भी
    इससे तो मैं सहमत नहीं हूँ सखी ,अब हमारे तुम्हारे दौड़ वाली बात नहीं रही ,वैसे हमेशा की तरह रचना बेहतरीन हैं

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    1. जी आपकी प्रतिक्रिया के लिए आभार सखी

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  2. बहुत बहुत शानदार सखी नारी का आत्म मंथन करती सार्थक रचना ।

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  3. स्त्रियों के लिए अपने त्याग और अपने बलिदान की गाथा गाते हुए आंसू बहाने का समय अब बीत चुका है. अब स्त्री-पुरुष का बराबरी का मुक़ाबला है.

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    1. सही कहा आपने आभार आदरणीय

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    1. सहृदय आभार उर्मिला दी

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  5. बहुत सुन्दर.... हर डर को हटा कर, हर दर्द को भुला कर आगे बढना है..😊

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  6. हार्दिक आभार श्वेता जी

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  7. बेहतरीन सृजन दी जी

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