Sunday, November 24, 2019

दर्द चीख कर मौन हो गया

दर्द चीख कर मौन हो गया,
हृदय हो गया बेचारा।
दर-बदर की ठोकर खाता,
फिरता है मारा-मारा।

निशब्द है भंवरों की गुँजन,
दर्द तड़पें मन के अंदर।
मुरझाए पौधे पे फूल,
चुभते हैं हृदय में शूल।

जाने अब कभी चमकेगा,
मेरी भाग्य का सितारा।
दर्द चीख कर मौन हो गया,
हृदय हो गया बेचारा।

फागुन के रंग हैं फीके,
बाग में कोयल न कूके।
अमुवा की डाल पे झूले ,
बिन तेरे अब हैं रीते।

आँखों से सूखे अब आँसू,
हृदय तड़पता आवारा।
दर्द चीख कर मौन हो गया,
हृदय हो गया बेचारा।

पुरवाई अब हौले-हौले,
यादों के देती झोंके।
बैठ कब से खोल झरोखे,
शायद चंदा कुछ बोले।

पीपल पात शोर कर रहे,
जैसे कोई बंजारा।
दर्द चीख कर मौन हो गया,
हृदय हो गया बेचारा।।
***अनुराधा चौहान***
चित्र गूगल से पाओ

Saturday, November 23, 2019

जीवन की साँझ


साँझ हुई जीवन की जबसे
भोर बोझिल-सी हो गई
महकती थी सुमन से बगिया
 बंजर-सी वो हो गई
प्रेम के अहसास जो छिटके
ओस की तरह गुम हुए
अंतिम पथ पे आज अकेले
बाट जोहते रह गए
दर्द भरी आँधियों में यादें
गुबार बीच गुम हुई
साँझ हुई जीवन की जबसे
भोर बोझिल-सी हो गई
इस बीते समय की धूल में
यादें भी गुम हो गईं
खुरदरी आज हथेलियों में
दिखती थी कभी ज़िंदगी 
लिपटकर इन बाहों में  कभी
राहत तुम्हें मिलती थी
आस के आसमान पे बैठ
राह ताकती रह गई
साँझ हुई जीवन की जबसे
भोर बोझिल-सी हो गई
आज झुरझुरी इस काया से
मोह-ममता छूट गई
सुनकर तोतले बोल तेरे
झूम उठे थे खुशी से
तुम जब चले उँगली पकड़कर 
आँखो में सपने पले
उन्हीं सपनों की बिखरी किर्चे
मैं समेटती रह गई
साँझ हुई जीवन की जबसे
भोर बोझिल-सी हो गई।
साँझ भी ढ़ल रही है अब तो,
आशा धूमिल हो गई।।

***अनुराधा चौहान***
चित्र गूगल से साभार

Wednesday, November 20, 2019

सृष्टि की संचालिकाएं

उतरी धरा पर सोचती मैं हूँ कौन
देख इन्हें सबकी खुशियाँ मुरझाई
देखकर रहते सबके चेहरे मौन
बेटी हूँ घर की नहीं कोई पराई

बोझ मत समझो इन बेटियों को
इनसे ही सृष्टि,सृजन चल रहा है
यह धन यह वैभव सब इन्हीं से
इनमें भी लक्ष्मी का अंश जुड़ा है

परिवार पे कोई मुश्किल है आती
यही दुर्गा और काली बन जाती
सरस्वती का सदा स्नेह है इन पर
तभी बच्चों को संस्कार सिखाती

विविध रूप है इन बेटियों के
नहीं कोई बंधन इन्हें बाँध पाया
माँ-बहन और बेटी पत्नी
हर रिश्ता इन्होंने बखूबी निभाया

सिर्फ बेटी बनकर ही नहीं जीती
रिश्तों के लिए यह अश्रु घूँट पीतीं
पर,पुरुष ने न अपना पौरुष छोड़ा
पल-पल स्त्रियों के हृदय को तोड़ा

सदा उन्हें देखा भोग की नज़र से
पर दिल से कभी सम्मान न दिया
बेटी की चाहत कम है अभी-भी
उनको उचित स्थान मिला न अभी-भी 

न फेंकों न मारो न तोड़ो इन्हें
खिलने दो नाज़ुक-सी कलियाँ इन्हें
जगा लो इंसानियत अपने अंदर
अनमोल धरोहर यह बचालो इन्हें

अगर भू से मिटा बेटियों का अस्तित्व
सृष्टि भी मिट जाएगी हो असंतुलित
जीवन व्याप्त है इनकी कोख में
यही सृष्टि की हैं संचालिकाएं

क्यों काँपती नहीं है रूह तुम्हारी
जला देते ज़िंदा मासूम सुकुमारी
नारी से जन्म ले,उसे तड़पाते
जिस्मों को नोचते हाथ नहीं काँपते

***अनुराधा चौहान***

कब पलट जाए किस्मत

नशा जवानी का सिर चढ़ता है
घर समाज तब कहांँ दिखता है
मौज-मजे में झूमते हैं फिर लोग
लगा बैठते फिर नशे का रोग

दीन-हीन रहते कदमों के नीचे
चूस-चूस कर लहू उनका पीते
मर जाती है करूणा इनकी
चढ़ी दिमाग पे धन की गर्मी

झूठ की दुनिया लगे मनभावन
सच्चाई का दूर से पांव लागन
तारीफों के पहन सिर पे ताज
छोड़ बैठते हैं सब काम-काज

अनजान बने दुनिया की रीत से
लक्ष्मी टिकती है कर्म पुनीत से
जब-जब होती धर्म की हानी
तब प्रभू रोकते यह मनमानी

मानो न मानो यही सत्य है
धरती ही स्वर्ग और यही नरक है
कब चल जाए प्रभू का लाठी
सोना बन  जाए लकड़ी की काठी

दुनिया की यह कड़वी सच्चाई
हर किसी को समझ नहीं आई
वक़्त रहते भविष्य नहीं देखा
कब मिट जाती भाग्य की रेखा

कल तक ताज सजा देखा था
आज वो शख्स अकेला बैठा था
पलट दिया किस्मत ने पांसा
आज उसी के हाथ दिया कासा

ऊपर वाले के घर में देर सही
पाप की मिलती सजा, अंधेर नहीं
पाप-पुण्य का रख लेखा-जोखा
समय रहते कर काम कुछ चोखा।
***अनुराधा चौहान***
चित्र गूगल से साभार

Monday, November 18, 2019

अंतिम पड़ाव

जिम्मेदारी के बोझ तले
ख्व़ाहिशें दम तोड गईं
बढ़ती रहीं चेहरे पे सिलवटें 
निशानी उम्र की दे गईं

दो से शुरू किया सफ़र
संग साथी इस संसार में
बच्चों से ही रही बहार
जीवन के इस आँगन में

ज़रूरतें पूरी करने में कब
ज़िंदगी हाथों से फिसल गिरी
लेखा-जोखा पढ़ने में कब
खुशियों सूखे पत्ते सी झरी

पलटते रहतें हैं बैठ फिर
यादों की पुस्तक के पन्ने
भूल गए वो भी बड़े होकर
कल-तक जो बच्चे थे नन्हें

यही दस्तूर ज़िंदगी का
बड़े विकट इसके झमेले
रिश्तों के संग जीने वाला
रिश्तों के बीच अकेले

श्वेत बाल सिलवटें लिए
जीवन के अंतिम छोर खड़े
कोई उम्मीद नहीं दिल में लिए
जब अपने ही हैं दूर खड़े

अंतिम पड़ाव ज़िंदगी का
हर एक जीवन की सच्चाई
इंसान रह जाता अकेला
सहता अपनों की जुदाई

***अनुराधा चौहान***
चित्र गूगल से साभार

Friday, November 15, 2019

मौन से संवाद

मौन ही करता रहा
मौन से संवाद
स्वप्न नये गढ़ता रहा
खुद के दरमियान

छूकर गुजरती हवा
राग कुछ छेड़ती
शब्द की खामोशी को‌
छेड़कर तोड़ती
सिमटी बूँद ओस की 
कली से कर बात

मौन ही करता रहा
मौन से संवाद

मन कुछ उदास-सा है
शब्द आज मौन हैं‌
मतलबी जग में कहाँ
किसी का कौन है
सहम-सहम चली हवा
हैं अलग अंदाज

मौन ही करता रहा
मौन से संवाद

ढल रही है साँझ अब
रात काली घनी
यादें बिखर रही हैं
टूटे कड़ी-कड़ी
चीर रहे सन्नाटे को
दर्द भरें यह जज़्बात

मौन ही करता रहा
मौन से संवाद।।

***अनुराधा चौहान***
चित्र गूगल से साभार

Sunday, November 10, 2019

कदमों की आहट

तेरे आने की आहट से
हवाओं में सरगम गूँज उठी
बालों की लट झूमी लहराई
हौले से गालों को चूम गई

पवन झकोरे झूम-झूम के
संदेशे तेरे सुनाने लगी
मैं पगली भी झूम-झूम के
चूनर हवा में लहराने लगी

शीतल मंद बयार बहकर
तन को मेरे सहलाने लगी
झूम रही पेड़ों की डाली
पुरवा राग सुनाने लगी

धड़क-धड़के करे दिल मेरा
कानों के झुमके झूम उठे
खनक-खनकें हाथों से कंगना
मन के भावों को बोल गए

छमक-छमक के छमक उठी
पैजनियाँ मेरे पांव की
माथे की बिंदिया दमक उठी
तेरे कदमों की ज्यों आहट सुनी।
***अनुराधा चौहान*** 
चित्र गूगल से साभार

वास्तविकता ज़िंदगी की

वास्तविकता को परे रख
दिखावे की ज़िंदगी जीने वाले
भर लेते हैं जीवन में
काँटे हमेशा चुभने वाले

यथार्थ के पथ पर काँटे सही
पर मार्ग उम्मीदों भरा 
खुशी के पल पग-पग मिले
जीवन में पग-पग संघर्ष भरा

दिखावे की कोशिश में दुनिया लगी
पाने की नियत में ज़िंदगी लगी
वास्तविकता को परे रखकर
मौत और विनाश के कगार आ खड़े

अब जरा डगमगाए तो गिरना
जमाने को पीछे छोड़ बढ़ना
हम श्रेष्ठ के चोले के पीछे
व्यर्थ विवादों के बुन ताने-बाने

सोच ऊँची,कर्म हो सच्चे
मेहनत भरी हो ज़िंदगी,मन सच्चे
ज़िंदगी की वास्तविकता यही
पर ज़िंदगी अब छल-कपट से भरी

छाँव भी शीतल नहीं अब
धूप भी चुभती बहुत है
कसक भेदती हरपल दिलों को
यह ज़िंदगी भी भला कोई ज़िंदगी
***अनुराधा चौहान***
चित्र गूगल से साभार

Friday, November 8, 2019

लेखनी की शक्ति

कलम का प्रहार हो,
दो धारी तलवार हो,
मन मजबूत कर,
आवाज उठाइए।

बड़े-बड़े यहाँ चोर,
मंहगाई करे शोर,
जनता का लिखें दर्द,
लेखनी चलाइए।

डरती नहीं है यह,
खोलती है कान यह,
कमजोर समझ के,
भूल मत जाइए।

खोलती है यह राज,
लिखती है दिन-रात,
कलम की ताकत को,
कम मत मानिए।

लिखती है बार-बार,
एक ही करे पुकार,
लुट रही बेटियों की,
लाज को बचाइए।

बैठे आँख बंद कर,
ऊँची-ऊँची कुर्सियों पे,
अब आप-बीती भला,
किसको सुनाइए।

थक कर रुके नहीं,
लेखनी का धर्म यही,
बुराई से लड़ने में,
हार मत मानिए।

कोशिश हर जंग की,
अनेक रूप रंग की,
सच्चाई की राह चल,
सब अपनाइए।
***अनुराधा चौहान***
चित्र गूगल से साभार

Thursday, November 7, 2019

चलो एक गीत लिखते हैं

चलो एक गीत लिखते हैं
जीवन संगीत लिखते हैं।

ऋतुएं है चार दिन की ढल जाएंगी
प्रीत की बातें हरपल याद आएंगी
चलो आज उन यादों को याद करते हैं
चलो एक गीत लिखते हैं
जीवन संगीत लिखते हैं।

बागों में झूले,झूले में सजनी
होठों पर दिल की थिरक रही रागिनी
सजनी के मन की प्रीत लिखते हैं
चलो एक गीत लिखते हैं
जीवन संगीत लिखते हैं।

मधुमास ले आया बसंती हवाएं
सावन में सखियाँ कजरी सुनाएं
कार्तिक पे प्रेम के दीप जलते हैं
चलो एक गीत लिखते हैं
जीवन संगीत लिखते हैं।

कुहासे की चादर मौसम ने ओढ़ी
बीत चली साल यादें पीछे छोड़ी
टूटे न प्रीत के धागे ये फरियाद करते हैं
चलो एक गीत लिखते हैं
जीवन संगीत लिखते हैं।।
***अनुराधा चौहान***

चित्र गूगल से साभार

Wednesday, November 6, 2019

चले आना ना रुकना तुम

चले आना ना रुकना तुम
न कहना कि बंदिशें हैं
यह बंदिशें हट जाएंगी
अगर दिल में मोहब्बत है

हवाए अब लाख मुँह मोड़ें
रोकें से रुकें ना हम
गुजर रहें हैं हसीं लम्हें
कोई अब न रोके पथ
चले आना......

मेरे इस मौन निमंत्रण को
नहीं ठुकरा देना तुम
कहीं लोगों की बातों में
न मुझको भूल जाना तुम
चले आना.....

गवाह यह वादियाँ सारी
गवाह चाँद-तारे भी
उमर ना बीत जाए सारी
तेरे इंतज़ार में ही
चले आना.....

चले आएं हैं ठुकराकर
ज़माने की बंदिशों को
नहीं जाना हमें लौटकर
छोड़ आएं राहों को
चले आना .....
***अनुराधा चौहान***
चित्र गूगल से साभार

Sunday, November 3, 2019

पलकों में सपने सँजोये

पलकों में सपने सँजोये,
आस मन पलती रही।
छवि बसी आँखों में तेरी,
धार बन बहती रही।।

खोजती हूँ निशान तेरे,
दूर जाती  राह में।
छोड़ सब संग चल पड़ी हूँ,
विश्वास ले चाह में।
गूँजती मन बातें  तेरी, 
मिसरी उर घुलती थी।
पलकों में सपने सँजोये,
आस मन पलती रही।।

आस मन में तेरी लिए हम,
प्रेम डगर पे चल दिए।
पता नहीं तेरा ठिकाना,
खोजने तुझे चल दिए।
ढूँढ रही अब हर दिशा में,
धूप में चलती रही।
पलकों में सपने सँजोये,
आस मन पलती रही।।

धूप में तपी जिंदगी को
प्यास तड़पाती रही।
पाँव में उभरे हैं छाले,
राह थी काँटो भरी।
घूरती लोगों की नजरें,
हृदय को खलती रही।
पलकों में सपने सँजोये,
आस मन पलती रही।।
***अनुराधा चौहान***

Saturday, November 2, 2019

एकता की पूँजी

जीवन की यह श्रेष्ठ है कुँजी
प्यार,एकता जिसकी पूँजी 
सद्गुण का मन वास है रहता
ज्ञान रूपी भंडार है बहता

टूट सकें न बंधन ऐसा
प्रेम,एकता पाश के जैसा
खुशियों से वह घर चमकाता
प्रीत सुमन आंगन महकाता

हर वाणी से प्रेम झलकता
सूरज मन में साहस भरता
स्नेह मिले स्वजनों का हरदम
ज्ञान प्रकाश से चमके यह मन

स्त्री के प्रति बदली है प्रीती
संस्कारों से मिलती रीती
सबकी इज्जत,मान व सेवा
सद्कर्मों से मिलता मेवा

एकता ही पहचान हमारी
जिसके झुकी दुनिया सारी
जहाँ खोखली होती एकता
शुरू हो जाती वहाँ विपदा

देश, घर-परिवार को बाँधे
दुष्ट झुके सदा इसके आगे
सुख-समृद्धि इसका है नारा
एकता,विश्वाश, भाईचारा
***अनुराधा चौहान***

चित्र गूगल से साभार