Wednesday, November 20, 2019

सृष्टि की संचालिकाएं

उतरी धरा पर सोचती मैं हूँ कौन
देख इन्हें सबकी खुशियाँ मुरझाई
देखकर रहते सबके चेहरे मौन
बेटी हूँ घर की नहीं कोई पराई

बोझ मत समझो इन बेटियों को
इनसे ही सृष्टि,सृजन चल रहा है
यह धन यह वैभव सब इन्हीं से
इनमें भी लक्ष्मी का अंश जुड़ा है

परिवार पे कोई मुश्किल है आती
यही दुर्गा और काली बन जाती
सरस्वती का सदा स्नेह है इन पर
तभी बच्चों को संस्कार सिखाती

विविध रूप है इन बेटियों के
नहीं कोई बंधन इन्हें बाँध पाया
माँ-बहन और बेटी पत्नी
हर रिश्ता इन्होंने बखूबी निभाया

सिर्फ बेटी बनकर ही नहीं जीती
रिश्तों के लिए यह अश्रु घूँट पीतीं
पर,पुरुष ने न अपना पौरुष छोड़ा
पल-पल स्त्रियों के हृदय को तोड़ा

सदा उन्हें देखा भोग की नज़र से
पर दिल से कभी सम्मान न दिया
बेटी की चाहत कम है अभी-भी
उनको उचित स्थान मिला न अभी-भी 

न फेंकों न मारो न तोड़ो इन्हें
खिलने दो नाज़ुक-सी कलियाँ इन्हें
जगा लो इंसानियत अपने अंदर
अनमोल धरोहर यह बचालो इन्हें

अगर भू से मिटा बेटियों का अस्तित्व
सृष्टि भी मिट जाएगी हो असंतुलित
जीवन व्याप्त है इनकी कोख में
यही सृष्टि की हैं संचालिकाएं

क्यों काँपती नहीं है रूह तुम्हारी
जला देते ज़िंदा मासूम सुकुमारी
नारी से जन्म ले,उसे तड़पाते
जिस्मों को नोचते हाथ नहीं काँपते

***अनुराधा चौहान***

15 comments:

  1. जी नमस्ते,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा शुक्रवार (22-11-2019 ) को ""सौम्य सरोवर" (चर्चा अंक- 3527)" पर भी होगी।
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिये जाये।
    आप भी सादर आमंत्रित हैं।
    *****
    -अनीता लागुरी'अनु'

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  2. बहुत सुंदर सृजन सखी बेटियों के सभी गुणों पर सुंदर दृष्टि।

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  3. बहुत सुंदर अभिव्यक्ति

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  4. बहुत सुन्दर सृजन अनुराधा जी ।

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  5. वाह!सखी ,बहुत खूबसूरत सृजन 👌

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  6. वाह..... बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति

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