वैमनस्य का कारण ढूँढो,
झाँक जरा भीतर की ओर।
उठकर अपनी आँखें खोलो,
देखो आई सुंदर भोर।
उथल-पुथल क्यो मन के अंदर,
कोई न कारण जान सके।
उगता हुआ सूरज भी मन में,
कोई उजाला भर न सके।
मुश्किल से मत डरकर भागो,
डर से मिले न कोई छोर।
उठकर अपनी आँखें खोलो,
देखो आई सुंदर भोर।।
वैमनस्य का कारण ढूँढो,
झाँक जरा भीतर की ओर।
उठकर अपनी आँखें खोलो,
देखो आई सुंदर भोर।।
चाह सुख की मन में बसी है,
तन को चाहिए बस आराम।
श्रम के बिना न जीवन सँवरे,
बनता कभी न बिगड़ा काम।
मेहनत का दामन न छोड़ो,
खुशियों की यह पक्की डोर।
उठकर अपनी आँखें खोलो,
देखो आई सुंदर भोर।।
वैमनस्य का कारण ढूँढो,
झाँक जरा भीतर की ओर।
उठकर अपनी आँखें खोलो,
देखो आई सुंदर भोर।।
***अनुराधा चौहान***
चित्र गूगल से साभार
आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज रविवार 01 मार्च 2020 को साझा की गई है...... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteहार्दिक आभार यशोदा जी
Deleteबहुत-बहुत सुन्दर लेखन। बधाई व शुभकामनाएं आदरणीया ।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर लेखन
ReplyDeleteधन्यवाद संजय जी
Deleteबहुत सार्थक सृजन ।
ReplyDeleteचाह सुख की मन में बसी है,
तन को चाहिए बस आराम।
श्रम के बिना न जीवन सँवरे,
बनता कभी न बिगड़ा काम।
मेहनत का दामन न छोड़ो,
खुशियों की यह पक्की डोर।
सीख और सत्य ।
अभिनव गीत।
चाह सुख की मन में बसी है,
ReplyDeleteतन को चाहिए बस आराम।
श्रम के बिना न जीवन सँवरे,
बनता कभी न बिगड़ा काम।
मेहनत का दामन न छोड़ो,
खुशियों की यह पक्की डोर।
वाह!!!!
सुन्दर सीख देता बहुत ही सारगर्भित लाजवाब नवगीत।