Friday, January 28, 2022

भूख


भूख पेट की बढ़ती जाती
अंतड़ियाँ दुखड़ा रोती।
धनवानों की बैठ तिजोरी
हँस रहे हीरा मोती।

पेट कसे निर्धन चुप होकर
ढूँढ रहा सूखी रोटी।
भूख प्राण की बलि ले हँसती
कुक्कुर नोच रहा बोटी।
देख पीर सन्नाटे छुपकर
मानवता भी चुप सोती।
भूख पेट की....

साँझ ढले फिर खाली हाँडी
चूल्हे पर चढ़ी चिढ़ाती।
खाली बर्तन करछी घूमे
बच्चों का मन बहलाती।
नन्ही आँखें प्रश्न पूछती
आशा फिर झूठी होती।
भूख पेट की....

शीत खड़ी दरवाजे पर जब
सन्न सन्न सोटे मारे
नन्हे थर-थर काँप उठे फिर
रातों में बदन उघारे।
स्वप्न रजाई हर बार सुना
तन ढाँक रही माँ धोती।
भूख पेट की....

©® अनुराधा चौहान'सुधी'स्वरचित
चित्र गूगल से साभार

12 comments:

  1. जी नमस्ते ,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (२९-०१ -२०२२ ) को
    'एक सूर्य उग आए ऐसा'(चर्चा-अंक -४३२५)
    पर भी होगी।
    आप भी सादर आमंत्रित है।
    सादर

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  2. मार्मिक रचना, सचमुच निर्धनता सबसे बड़ा अभिशाप है, काश ! इस धरा पर कभी कोई भूखा न रहे.

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    1. हार्दिक आभार अनीता जी।

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  3. अत्यंत मार्मिक रचना!
    पूरी तरह से झकझोर देते हैं ऐसे दृश्य!
    एक बात गाँव की अच्छी होती है यहाँ कोई भूखा नहीं सोता और ना ही कभी किसी की भूख से...!
    पर सभी गांवों में ऐसा होता है इसका दावा नहीं किया जा सकता!

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    1. हार्दिक आभार मनीषा जी।

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  4. अत्यंत हृदयस्पर्शी सृजन।

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    1. हार्दिक आभार आदरणीया।

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  5. मार्मिक भाव ...
    अंतर्मन को उद्वेलित करती है आपकी रचना ...

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    1. हार्दिक आभार आदरणीय।

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  6. पेट कसे निर्धन चुप होकर
    ढूँढ रहा सूखी रोटी।
    भूख प्राण की बलि ले हँसती
    कुक्कुर नोच रहा बोटी।
    देख पीर सन्नाटे छुपकर
    मानवता भी चुप सोती।
    भूख पेट की....बहुत ही मार्मिक भावपूर्ण । सच कहीं ऐसा दृश्य देख रोंगटे खड़े हो जाते हैं ।

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    1. हार्दिक आभार जिज्ञासा जी।

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