शब्द के जाले उलझकर
भाव की बिखरी कड़ी।
लेखनी फिर मूक होकर
बीनती बिखरी लड़ी।
कौन कोने जा छुपे हैं
वर्ण सारे रूठकर।
बुन रही हूँ बैठ माला
पुष्प सम फिर गूँथकर।
टूटता हर बार धागा
भावना की ले झड़ी।
शब्द के जाले...
लेखनी की नींद गहरी
आज थककर सो रही।
गीत आहत से पड़े सब
प्रीत सपने बो रही।
भाव ने क्रंदन मचाया
खिन्न कविता रो पड़ी।
शब्द के जाले...
मौन मन में मूक दर्शक
आज रस सारे बने।
रंग भी बेरंग होकर
बात पर अपनी तने।
भावनाएं सोचती फिर
राग छलके किस घड़ी।
शब्द के जाले...
*अनुराधा चौहान'सुधी'स्वरचित*
चित्र गूगल से साभार
जी नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना शुक्रवार ११ फरवरी २०२२ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
जी हार्दिक आभार श्वेता जी ।
Deleteजी नमस्ते ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (११ -०२ -२०२२ ) को
'मन है बहुत उदास'(चर्चा अंक-४३३७) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
जी हार्दिक आभार सखी।
Deleteकौन कोने जा छुपे हैं
ReplyDeleteवर्ण सारे रूठकर।
बुन रही हूँ बैठ माला
पुष्प सम फिर गूँथकर।
टूटता हर बार धागा
भावना की ले झड़ी।
शब्द के जाले...
भावनाओं से ओतप्रोत अत्यंत मार्मिक व हृदयस्पर्शी
हार्दिक आभार मनीषा जी।
Deleteआपके अगर वर्ण रूठ जाएँगे तो हम जैसों का क्या होगा । बेहतरीन माला पिरोई है ।
ReplyDeleteभावपूर्ण रचना ।
लेखनी की नींद गहरी
ReplyDeleteआज थककर सो रही।
गीत आहत से पड़े सब
प्रीत सपने बो रही।
भाव ने क्रंदन मचाया
खिन्न कविता रो पड़ी।
वाह!! लाजवाब! भाव और छंद विधान, दोनों। बधाई और आभार!!!
हार्दिक आभार आदरणीय।
Deleteउत्कृष्ट सृजन।
ReplyDeleteहार्दिक आभार अमृता जी।
Delete"हैं सबसे मधुर वो गीत जिन्हें, हम दर्द के सुर में गाते हैं"
ReplyDeleteतलत महमूद साहब का गाया वह गीत याद आ गया.
कुछ ऐसी ही मनःस्थिति है आजकल. आपने जैसे नब्ज़ पर हाथ रख दिया.
मधुर रचना.
"कौन कोने जा छुपे हैं
ReplyDeleteवर्ण सारे रूठकर।
बुन रही हूँ बैठ माला
पुष्प सम फिर गूँथकर।
टूटता हर बार धागा
भावना की ले झड़ी।
शब्द के जाले..."
वाह बहुत खूब !!
वाह अप्रतिम सृजन
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