Wednesday, October 10, 2018

उलझनें यह कैसी


मची है खींचातानी
हर तरफ शोर है
कहीं नहीं है शांति
जीवन में बड़ा झोल है
उलझनें यह कैसी
सुलझती नहीं है
थक गई हूं मैं बहुत
एकांत चाहती हूं
जिंदगी में अब थोड़ी
शांति चाहती हूं
बदल गया है कुछ कुछ
बहुत कुछ वहीं है
नीतियां वही पुरानी
दम घोंटने लगी हैं
सबकी अलग डफ़ली
वही पुराना राग है
उलझा उसमें बेचारा
आज का आम इंसान है
देश के कर्णधारों अब तो
तस्वीर तुम सुधार लो
छोड़कर मतलबपरस्ती
इंसानियत उधार लो
कैसे बंद रखे हम
आंखों ओर कान को
बड़े व्यथित करते हैं
होते जो कांड रोज
उलझ गया है इंसान
इनकी मायावी चालों में
उलझनें भी ऐसी जो
सुलझती नहीं है
थक गई हूं मैं बहुत
एकांत चाहती हूं
जिंदगी में अब थोड़ी
शांति चाहती हूं
***अनुराधा चौहान***





20 comments:

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    1. धन्यवाद आदरणीय राहुल जी

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  2. समय परक एक सीधा सवाल और व्यथित मन की गुहार ।
    बहुत सार्थक यथार्थ रचना ।

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  3. ब्लॉग बुलेटिन की दिनांक 10/10/2018 की बुलेटिन, ग़ज़ल सम्राट स्व॰ जगजीत सिंह साहब की ७ वीं पुण्यतिथि “ , में आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

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    1. बहुत बहुत आभार आदरणीय मेरी रचना को स्थान देने के लिए

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  4. वाह!!बहुत खूबसूरत रचना!!

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    1. बहुत बहुत आभार शुभा जी

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  5. थक गई हूं मैं बहुत
    एकांत चाहती हूं......
    इस जीवन को हमारी ही हाथों बिगाड़ी गई कुव्यवस्था तथा मतलबपरस्ती ने परेशान किया हुआ है। इस पर कुठाराघात करती अच्छी रचना। बधाई ।

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    1. बहुत बहुत आभार आदरणीय

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  6. शांति तो जैसे खुदा हो गयी
    ढूढने से तो मिलती ही नही.
    उलझ को छोड़ कर जा भी तो नहीं सकते.
    सुंदर रचना.
    हद पार इश्क 

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    1. धन्यवाद आदरणीय रोहिताश जी

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  7. बहुत सुंदर।👌👌

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  8. बहुत बहुत आभार श्वेता जी

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  9. This comment has been removed by the author.

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