Wednesday, October 10, 2018

गरीब

वो हैं गरीब जरूर
पर स्वाभिमान से जीते
करते अथक परिश्रम
भरने को पेट अपना
है चाह व्यंजनों की
पर सूखी रोटी से पेट भरते
न बिस्तर का कोई रोना
पत्थर ही है बिछोना
तकलीफें सदा घेरे
फिर भी कदम न रुकते
धूप हो या तेज बारिश
निरंतर यह कर्म करते
रात की आगोश में वो
रोेज सपने नए बुनते
वो ढोते गिट्टी गारा
तब बिल्डिंगें संवरती
हमारी सुविधाओं के
यही महल खड़े करते
करने भविष्य उज्ज्वल
दिन-रात एक करते
फिर भी गरीबी इनकी
कभी पीछा नहीं छोड़ती है
बारिश में छत टपकती
आंखों को नम करती
देखा आंखों ने सपना
इक मकान हो अपना
पर मंहगाई कमर तोड़े
पर जीना कैसे छोड़े
बच्चों का पेट भरने में
पूरी जिंदगी गुजरती
***अनुराधा चौहान***

13 comments:

  1. मार्मिक रचना 🙏

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  2. गरीबी में रहते हुए भी स्वाभिमान से जीने वाले ही जिंदगी को समझते हैं ...
    अच्च्ची रचना है ...

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    1. धन्यवाद आदरणीय दिगंबर जी

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  3. स्वाभिमान का धन ही गरीबी में भी इन्सान को संघर्ष करने का हौसला देता है । बहुत अच्छा सृजन अनुराधा जी ।

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    1. बहुत बहुत आभार मीना जी

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    1. आपका बहुत बहुत आभार

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  5. बहुत बहुत आभार आदरणीय

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  6. सटीक और यथार्थ रचना आपने सजीव वर्णन किया सखी। सच स्थिति बहुत दारुण हैं ।
    सार्थक सारगर्भित रचना।

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    1. बहुत बहुत आभार सखी आपकी सुंदर प्रतिक्रिया के लिए

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