जब भी बंद करूं आंखें
तेरा चेहरा नजर आता है
मुझको अब हर घड़ी
तेरा ख्याल आता है
बेकरार करती है मुझे
आंखों की कशिश तेरी
बिखर के न रह जाए
मेरे ख्बावों की यह लड़ी
पूछना चाहती हूं मगर
पूछ नहीं पाती हूं
खुद की उलझनों को
खुद ही सुलझाती हूं
यह वहम है मेरे दिल का
या तू भी मुश्किल में है
या कशिश मेरे प्यार की
तुझे भी महसूस होती है
हो अनजान तुम सच में
या फिर अनजान बनते हो
विचारों की गहराई में
डूबती-उतरती रहती हूं
क्या है तेरे मेरे दरम्यान
यह समझ नहीं पाती हूं
अजीब सी उलझन में
खुद को फसा पाती हूं
***अनुराधा चौहान***
बहुत खूब
ReplyDeleteवाह,
यही तो बेकरारी है.
हद पार इश्क
धन्यवाद आदरणीय रोहिताश जी
Deleteबहुत बहुत आभार दी
ReplyDeleteवआआह
ReplyDeleteसादर
बहुत बहुत आभार यशोदा जी
Deleteबहुत सुंदर रचना
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार आपका
Deleteबेहतरीन रचना सखी 👌
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार सखी
Deleteबहुत बहुत आभार नीतू जी
ReplyDeleteबहुत सुंदर 👌👌
ReplyDeleteधन्यवाद आदरणीय जीवन जी
Deleteबहुत प्यारी ....सुंदर रचना अनुराधा जी।
ReplyDeleteधन्यवाद आदरणीया दीपशिखा जी
Deleteलाजवाब रचना
ReplyDeleteधन्यवाद लोकेश जी
Deleteजी नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना हमारे सोमवारीय विशेषांक १४ अक्टूबर २०१८ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।
बहुत बहुत आभार श्वेता जी मेरी रचना को स्थान देने के लिए
Deleteजो अरमान इधर हैं वो उधर है कि नही
ReplyDeleteपुछ लें ऐ दिल उलझन जो इधर है वो उधर है कि नही।
बहुत सुंदर रचना सखी उलझन से भरी ।
बहुत बहुत आभार सखी
Deleteवाह!!बहुत खूबसूरत रचना।
ReplyDeleteधन्यवाद शुभा जी
Deleteमैं क्या बोलूँ अब....अपने निःशब्द कर दिया है....
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