Thursday, October 11, 2018

अजीब सी उलझन

 
जब भी बंद करूं आंखें
तेरा चेहरा नजर आता है
मुझको अब हर घड़ी
तेरा ख्याल आता है
बेकरार करती है मुझे
आंखों की कशिश तेरी
बिखर के न रह जाए
मेरे ख्बावों की यह लड़ी
पूछना चाहती हूं मगर
पूछ नहीं पाती हूं
खुद की उलझनों को
खुद ही सुलझाती हूं
यह वहम है मेरे दिल का
या तू भी मुश्किल में है
या कशिश मेरे प्यार की
तुझे भी महसूस होती है
हो अनजान तुम सच में
या फिर अनजान बनते हो
विचारों की गहराई में
डूबती-उतरती रहती हूं
क्या है तेरे मेरे दरम्यान
यह समझ नहीं पाती  हूं
अजीब सी उलझन में
खुद को फसा पाती हूं
***अनुराधा चौहान***

23 comments:

  1. बहुत खूब
    वाह,
    यही तो बेकरारी है.
    हद पार इश्क 

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    1. धन्यवाद आदरणीय रोहिताश जी

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  2. बहुत बहुत आभार दी

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    1. बहुत बहुत आभार यशोदा जी

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  4. बहुत सुंदर रचना

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    1. बहुत बहुत आभार आपका

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  5. बेहतरीन रचना सखी 👌

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  6. बहुत बहुत आभार नीतू जी

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  7. बहुत सुंदर 👌👌

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    1. धन्यवाद आदरणीय जीवन जी

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  8. बहुत प्यारी ....सुंदर रचना अनुराधा जी।

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    1. धन्यवाद आदरणीया दीपशिखा जी

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  9. जी नमस्ते,
    आपकी लिखी रचना हमारे सोमवारीय विशेषांक १४ अक्टूबर २०१८ के लिए साझा की गयी है
    पांच लिंकों का आनंद पर...
    आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।

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    1. बहुत बहुत आभार श्वेता जी मेरी रचना को स्थान देने के लिए

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  10. जो अरमान इधर हैं वो उधर है कि नही
    पुछ लें ऐ दिल उलझन जो इधर है वो उधर है कि नही।
    बहुत सुंदर रचना सखी उलझन से भरी ।

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  11. वाह!!बहुत खूबसूरत रचना।

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  12. मैं क्या बोलूँ अब....अपने निःशब्द कर दिया है....

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