Thursday, October 4, 2018

भूख

भरी है तिजोरी
फिर भी पैसों के भूखे है
रिश्ते से घिरे हुए
फिर भी प्यार के भूखे है
करते हैं गलत काम
और सम्मान की भूखे है
कोई जिस्म की भूख में
मर्यादाएं तोड़ रहा
लगे हुए हैं सब अपनी
भूख मिटाने के वास्ते
पर इन सब से अलग
वो तोड़ती धूप में पत्थर
कुछ पैसों की आस में
क्योंकि उसके घर में थे
नन्हे मासूम बच्चे भूख
मिटाने की आस लिए
ताक रही मासूम आंखें
दरवाजे के बाहर
लेकर आती होगी मां
कुछ खाने को आज
***अनुराधा चौहान*

10 comments:

  1. मातृत्व की बावना सबसे अलग होती है.
    गजब की रचना. नाफ़ प्याला याद आता है क्यों? (गजल 5)

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  2. बहुत बहुत आभार आदरणीय मेरी रचना को स्थान देने के लिए 🙏

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  3. कुछ दिन का इंतज़ार कर लो ऐ बच्चों ! माँ की लाई रोटी खा लेना और फिर जल्दी से बड़े हो जाना. आखिर तुमको भी तो अपनी माँ के साथ पत्थर फोड़ने हैं और साथ में अपनी-अपनी क़िस्मत भी फोडनी हैं. मार्मिक कविता !

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    1. बहुत बहुत आभार आदरणीय

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  4. बहुत ही सुन्दर और भावपूर्ण रचना 🙏

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  5. बहुत ही भावपूर्ण अभिव्यक्ति

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    1. धन्यवाद आदरणीय लोकेश जी

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  6. बहुत ही सुन्दर रचना

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