Monday, May 13, 2019

बादल की आँख-मिचौली

एक बादल का टुकड़ा
खेलता आँख-मिचौली
कोशिश करता रहा
सूरज को ढकने की
फिर चुपचाप चल दिया
हवाओं के साथ जा पंहुचा
घटाओं से घुलने-मिलने
बरसना चाहे पर बरसता नहीं
धरा की तपन पर तरस खाता नहीं 
मन में आशा को जगाए
कभी उड़ जाए फिर लौट आए
शरारती बच्चे की तरह
लुका-छिपी का खेल दिखाए
आसमान में लगाए जमघट
कभी दामिनी से लड़कर
कभी राह से भटककर 
होकर व्याकुल लगता बरसने
फिर चल देता कोई राह पकड़
आसमान का आँचल छोड़
आँखों में सपने देकर
शायद फिर लौट आए बादल
इस बार संग अपने बारिश लेकर
***अनुराधा चौहान***
चित्र गूगल से साभार

12 comments:

  1. बादल वापस आते हैं बारिश की बूँदें ले कर ... धरती की प्यास बुझाने ...
    कुछ सपे जगाने ...
    सुन्दर रचना ...

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  2. लुका-छिपी का खेल दिखाए,
    कब तक कोई आस लगाए.
    बैरी बदरा क्यों तरसाए,
    धरती सूखी, बरस भी जाए.

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  3. बहुत सुंदर सखी ¡
    तपती धरा भी बादलों को आस लिये देख रही है प्यासी दरकी दरकी।

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  4. सहृदय आभार ऋतु जी

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  5. वाह! ,सखी ,बहुत सुंदर रचना ।

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  6. बहुत सुन्दर👌👌

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    1. सहृदय आभार मीना जी

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  7. सहृदय आभार दी 🌹

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  8. वाह !सखी अनुराधा जी , ये तो मेरे शहर के आज के मौसम का हाल लिख दिया आपने | बहुत सुंदर अभिव्यक्ति सखी |

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    1. सहृदय आभार प्रिय सखी

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