Tuesday, September 17, 2019

सपने धुआँ-धुआँ

मिट जाती बस्ती पल-भर में
और सपने हो जाते धुआँ-धुआँ
मिट जाती ख्वाहिशें गरीबों की
खड़ा हो जाता इमारतों का जहाँ

कुछ दिन मचाते खींचातानी
कुछ दिन ही होती मारामारी
देखकर रह जाते स्वाहा सपने
मिट जाते दिल के सब अरमान

चिंता में सुलगती जर्जर काया
न सिर पर छत न कोई छाया
न बनता कोई मसीहा इनका
न कोई खेवनहार ज़िंदगी का

करते फिर से मेहनत-मजदूरी
मरी ख्वाहिशों को करके दफ़न
बस यही ज़िंदगी है गरीबों की
मरने पर नसीब न होता कफन
***अनुराधा चौहान*** 

11 comments:

  1. वास्तविकता के धरातल पर बहुत सटीक अभिव्यक्ति सखी ।
    हृदय को स्पर्स करती ।

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  2. करते फिर से मेहनत-मजदूरी,
    मरी ख्वाहिशों को करके दफ़न।
    बस यही ज़िंदगी है गरीबों की,
    मरने पर नसीब न होता कफन।

    आज हमारे प्रधानमंत्री के जन्मदिन के धूम के मध्य लिखी आपकी यह रचना विचारणीय है कि समाज के अंतिम पावदान पर खड़ा आदमी भी इस उत्सव को उसी उत्साह से मना रहा है ?
    प्रणाम दी।

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    1. हार्दिक आभार आदरणीय

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  3. कडुवी बात और सच्ची बात ...
    ऐसा समाज हम सबने ही तैयार करना है ...

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    1. हार्दिक आभार आदरणीय

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  4. अनुराधा दी, समाज की कड़वी सच्चाई को बहुत सुंदर तरीके से व्यक्त किया हैं आपने।

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    1. हार्दिक आभार ज्योति बहन

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  5. कटु यथार्थ उजागर करती सुन्दर रचना अनुराधा जी ।

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